रथ यात्रा भाग - १ २०२४

अनुच्छेद (पेरेग्राफ ) | शीर्षक |
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१ | रथयात्रा - एक दुर्लभ परंपरा |
२ | रथयात्रा क्यों मनाई जाती है? |
३ | भगवान जगन्नाथ १५ दिन बीमार क्यों रहते है? |
४ | २०२४ में रथयात्रा कब है? |
५ | रथयात्रा कैसे निकाली जाती है? |
६ | मुस्लिम भक्त साल्विक की मजार |
७ | बाहुडा यात्रा |
रथयात्रा हिन्दू धर्म की परंपरा का एक दुर्लभ उदहारण है। विश्व की एक मात्रा रथयात्रा है, जिसमे भगवान अपने भक्तो को दर्शन देने के लिए मंदिर के बाहर आते है। जिसमे लाखो की संख्या में श्रद्धालु आते है। भारत देश के अनेक राज्यों में रथयात्रा निकाली जाती है। जिसमे पूरी की रथयात्रा का सबसे अधिक महत्त्व है। क्योकि पूरी हिन्दू धर्म की ४ धामों की यात्रा में से एक यात्रा है। इस रथ यात्रा में शामिल होने के लिए लाखो देशी भक्तो के साथ विदेश से भी भक्त आते है।
भारत देश के अंदर पूरी, अहमदाबाद, बरोडा, सूरत, मथुरा और काशी ऐसे अनेक राज्य में मनाई जाती है। भारत देश के बहार, अमेरिका में न्यूयोर्क, लॉस एंजेलिस,सान फ्रांसिस्को आदि में मनाई जाती है। ब्रिटेन में लंदन, पेरिस, गोवेंट्री आदि के उपरांत टोरेन्टो और बुडापेस्ट में करीब ४० सालो से मनाई जाती है। देश के बाहर, यह यात्रा जून या जुलाई में सप्ताह के अंतिम दिनों में की जाती है। इसे इस्कॉन द्वारा मनाई जाती है।
रथयात्रा क्यों मनाई जाती है?
Jagannath Tri., By User.Raji. srinivas, Image compressed and resized, Source is licensed under CC BY- SA 3.0
रथयात्रा अषाढ़ माह की शुकल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। भारत देश में उड़ीसा के पूरी क्षेत्र का बड़ा महत्त्व है। यहाँ कृष्ण भगवान अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ बिराजमान है। पूरी में भगवान स्वयं अपनी मर्जी से बिराजमान है। पुरे विश्व में तीनो भाई बहन का एकसाथ होने वाला मंदिर एक ही है। रथयात्रा और पूरी क्षेत्र दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। इसके साथ अनेक मान्यता और सत्य जुड़े हुए है।
कहा जाता है की इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण, जगन्नाथ के रूप में साक्षात् बिराजमान है। सुभद्राजी को अपना मायका बहोत ही पसंद था। इसलिए जब भी मायके आती है, तब पुरे नगर में भ्रमण करने की इच्छा होती थी। इसलिए सुभद्राजी को भ्रमण कराने हेतु दोनों भाई बलराम और श्री कृष्ण अपनी बहन को रथ में बिठाकर घुमाते थे। रथयात्रा में शामिल होने के लिए दुनिया के कई देश से भक्त आते है।

तीनो भाई बहन के रथ अलग होते है। सभी के रथ का रंग और उचाई अलग होती है। सबसे पहले बलराम जी का रथ चलता है। बलरामजी का रथ का रंग लाल और हरा रहता है। रथ की उचाई ४५ फिट होती है। रथ का सारथी मताली होता है। रथ की रक्षा वासुदेव करते है। उसे तालध्वज कहते है। रथ पर महादेवजी प्रतिक होता है। रथ के ध्वज को उनानी कहते है। इस रथ के १४ पहिये होते है। इस रथ के घोड़े का रंग नीला होता है।
सुभद्राजी का रथ लाल और काला होता है। रथ की उचाई ४४. ६ फिट होती है। उसे पद्मध्वज या दर्पदलन भी कहते है। रथ के ऊपर दुर्गाजी का प्रतिक होता है। रथ का सारथी अर्जुन होते है। जयदुर्गा रथ की रक्षक होती है।इस रथ के १२ पहिये होते है। इस रथ के घोड़े का रंग भूरा होता है। सुभद्राजी का रथ बलरामजी और जगन्नाथजी के रथ के बीच में चलता है।
जगन्नाथजी का रथ लाल और पीला होता है। रथ ऊपर हनुमानजी, नृसिंह और सुदर्शन चक्र होता है। रथ की रक्षा पक्षीराज गरुड़ करते है जो विष्णुजी का वाहन है। रथ के सारथी का नाम दारुक है। जिस रस्सी से रथ को खींचते है उसे शंखचुड़ कहा जाता है। रथ की उचाई ४५. ६ फिट होती है। उसे नंदिघोष या गरुड़ध्वज और कपिध्वज भी कहते है। रथ के सफ़ेद घोड़ो के नाम हरिदाश्व, शंख, बलाहक और श्वेत होता है। रथ में १६ पहिये होते है। जगन्नाथजी का रथ अंत में चलता है।
तीनो रथो को बनाने के लिए लकडिया अक्षय तृतीया के दिन से आना शुरू हो जाती है। रथो को बनाने में नारियल की लकड़ीया लगती है। रथ यात्रा की समाप्ति के बाद, तीनो रथ को खोल दिया जाता है। कहते है की यह सारी लकड़ी को बाँध कर रखा जाता है। इसे रसोई घर मे, रसोई करने के लिए, आग जलाने के लिए उपयोग में लिया जाता है। इस तरह मंदिर में एक लकड़ी का भी नुक्सान नहीं होता है।
भगवान जगन्नाथ १५ दिन बीमार क्यों रहते है?
भगवान जगन्नाथ का एक अत्यंत श्रद्धालु भक्त थे। उसका नाम माधवदास था। वह अकेले ही रहते थे।अपना काम वह खुद ही करते थे । हमेशा भगवान जगन्नाथ की भक्ति मे मगन रहते थे । माधवदास भगवान की निस्वार्थ भक्ति करते थे। एक दिन माधवदास बीमार हो गए। उसे बूखार और दस्त की बिमारी हो गयी। अकेले होने के कारण बहुत ही परेशान हो गए थे। दस्त की सफाई और कपडे की सफाई करने वाला कोई नहीं था। इसलिए बीमारी के कारण माधवदास बेहोश हो गए । तब भगवान जगन्नाथ खुद भक्त के घर पहुंच गए। माधवदास के कपड़ो की सफाई की। माधवदास को स्नान करवाया। माधवदास के सारे अंग की सफाई की। माधवदास को जब होश आया। वह भगवान जगन्नाथ को पहचान गए।
माधवदास ने भगवान जगन्नाथ को कहा, भगवान आपने मेरे गंदे कपडे धोये और मुजे स्नान करवाया। मेरी इतनी सेवा की। आप तो भगवान हो आपने मेरी बिमारी ही दूर कर दी होती तो मै कभी बीमार ही नहीं पड़ता और आपको परेशान नहीं होना पड़ता। तब भगवान ने कहा, अगर मै तुम्हे बीमार ही नहीं पड़ने देता तो जो कर्म तुम्हे भुगतना है वह अधूरा रह जाता। तुम्हे इस कर्म भुगतने के लिए फिरसे जन्म लेना पड़ता जो, तुम्हारे हित में नहीं था। मगर अब तूम स्वस्थ हो। सिर्फ कमजोरी है। इसलिए यह बीमारी का १५ दिन का समय, मै अपने पर ले लेता हु। यह माधवदास की बिमारी अपने पर लेने के कारण ही भगवान १५ दिन बीमार रहते है।
भगवान जगन्नाथ को स्वस्थ करने के लिए १५ दिन मंदिर के पट याने दरवाजे को बंध रखे जाते है। भगवान को कोई भी भोग नहीं चढ़ाया जाता है। रसोई भी बंध की जाती है। भगवान को सिर्फ काढ़ा ही पिलाया जाता है। वैद्य भी भगवान कि सारवार के लिए आते है। भक्तों के लिए भी रसोई नहीं बनती। १५ दिन के बाद जब भगवान ठीक हो जाते है। तब भगवान जगन्नाथ अषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह से स्नान करने बाहर निकलते है। इसे देव स्नान पूर्णिमा भी कहते है। साल में एकबार स्नान पूर्णिमा के दिन भगवान को स्नान करवाया जाता है। भगवान जगन्नाथ अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया को होने वाली रथ यात्रा के लिए स्वस्थ और तैयार हो जाते है।
२०२३ में रथयात्रा कब है?
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा की शुरुआत अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया, रवि वार को ०७ जुलाई २०२४ से होगी। रथ यात्रा अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया का आरंभ रविवार को ७ जुलाई २०२४ को रात्रि ०४:२६ मिनट से होगा।
अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीय की समाप्ति सोमवार ०८ जुलाई २०२४ को शाम ०७: ०९ मिनट को होगी।
विशेष माहिती - रथ यात्रा -२ को जरूर पढ़े। जिसमे उड़ीसा के जगन्नाथ पूरी मंदिर से जुडी चमत्कारी घटनाये के बारे में लिखा है। जिसका जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है।
रथयात्रा कैसे निकाली जाती है?
रथ यात्रा के करीब १ माह पहले से रथ बनाने की शुरुआत की जाती है। तीनो भाई बहन के लिए अलग रथ बनाये जाते है। अषाढ़ माह की शुकल पक्ष की द्वितीया को रथ को पूरी में स्थित, भगवान जगन्नाथ के मंदिर के सिंह द्वार पर लाया जाता है। वहां तीनो भाई बहन को स्नान करके नए वस्त्र पहनाकर रथ में बिठाया जाता है। रथ यात्रा भगवान जगन्नाथजी के मंदिर से ३ किलोमीटर दूर अपनी मौसी के घर याने गुंडीचा मंदिर में समाप्त होती है।


रथ यात्रा की शुरुआत मंत्रोच्चार, पारम्पारिक वाद्यों, जय घोष और भगवान जगन्नाथजी के जयकारे से शुरू होती है।सबसे पहले बलरामजी का रथ होता है। बीच में बहन सुभद्राजी का रथ होता है। अंत में भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है। लाखो मानव का जन समुदाय दुनिया के अनेक देश से इस रथ यात्रा में शामिल होने आते है। सब रथ को खींचने के लिए व्याकुल रहते है। रथ की रस्सी को खींचने के बाद अपनेआप को भाग्यशाली मानते है। उन भक्तो के मुख पर यात्रा सफल होने के भाव दिखाई देता है। इतना बड़ा जन सैलाब होने के बावजूद भी,कही पर भी अव्यवस्था भीड़भाड़ या मन मुटाव देखने नहीं मिलता है। पूरा वातावरण श्रद्धा भक्ति के रंग में रंग जाता है।

यह रथ यात्रा भगवान् जगन्नाथजी के मौसी के घर याने गुंडेची माता के मंदिर पहुंचने से पहले भगवान जगन्नाथजी की मनभावन (मिठाई) "गोडा पिठा" खाने के लिए रुकती है। गोडा पीठा उड़ीसा की लोकप्रिय मिठाई है। जो जगन्नाथजी की मनपसंद मिठाई है।
मुस्लिम भक्त साल्विक की मजार
रथयात्रा अब एक भगवान जगन्नाथ का परम भक्त मुस्लिम शख्स साल्विक की मज़ार के पास रूकती है। मुस्लिम शख्स साल्विक की माता हिन्दू थी और पिता मुस्लिम था। वह मुग़ल काल में सेना में एक सैनिक था। एक युद्ध के दरमियान वह धायल हो गया। उसके सर पर चोट लगी और गहरा घाव हो गया। बहुत सारवार के बाद भी वह ठीक नहीं हुआ। इसलिए उसे सेना से निकाल दीया गया।
घाव का इलाज न होने से और बेरोजगार हो जाने से, वह बहुत दुखी हो गया। तब उसकी हिन्दू माता ने साल्विक को भगवान जगन्नाथजी भक्ति करने को कहा। इसलिए मुस्लिम होने के बावजूद, भगवान जगन्नाथजी की दिलसे और भाव से भक्ति करने लगा। एक दिन जगन्नाथजी उसके स्वपन में आये और उसका घाव को भर दिया। साल्विक ने सुबह उठने पर जब घाव को भरा हुआ पाया। तब उसने पूरी में भगवान् के मंदिर में जाकर भगवान् का दर्शन करने गया। मगर हिन्दू न होने की वजह से उसे मंदिर मे प्रवेश नहीं मिला। इसलिए वह दर्शन न कर सका। उसने सोचा की मेरा भाव अच्छा है। इसलिए भगवान खुद मुझे मिलने आएंगे।
उसे भगवान् के दर्शन नहीं हुए। उसके मरण के बाद, जब रथ यात्रा का दिन आया तो रथ जब उसकी मज़ार के पास आया तो रुक गया। बहुत जोर लगाने के बाद भी रथ नहीं हिला। तब भक्तो ने मज़ार के सामने साल्विक का जयकारा लगाया। तब रथ आगे बढ़ा। कहा जाता है की, उस दिन से रथयात्रा का एक पड़ाव मज़ार के पास किया जाता है।
Rathyatra of Jagannath puri ends at gundechi mandir, which is residence of Bhagwan Jagannath s mausi.
बाहुडा यात्रा
पुरे ३ किलोमीटर काटकर रथ गुंडेची मंदिर याने भगवान अपनी मौसी के घर गाजे बाजे के साथ पहुंचता है। रथ यात्रा के एक दिन पहले पुरे मंदिर की सफाई की जाती है। तीनो भाई बहन को पुरे विधिविधान के साथ रथ से उतारा जाता है। अपनी मौसी के घर तीनो भाई और बहन ७ दिन तक रहते है। यहाँ तीनो को मनभावन भोग लगाया जाता है। ७ दिन मौसी के घर रहने के बाद, अषाढ़ माह के शुकल पक्ष के दशम के दिन, तीनो भाई बहन को फिर से रथ में बिराजमान किया जाता है। तीनो रथ को फिरसे रस्से से खींचकर जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। इस वापिस यात्रा को, स्थानिक भाषा में "बाहुड़ा यात्रा" कहा जाता है। मंदिर पहुंचने के बाद, तीनो मूर्ति को बाजे गाजे के साथ फिर से स्थापित की जाती है। इस तरह जगत कि एक मात्र रथ यात्रा, जिसमे भगवान खुद मंदिर के बाहर भक्तो के पास आते है, वह समाप्त होती है।
जय जगन्नाथ
आगे का पढ़े : १ रथयात्रा - भाग -२. २. रथयात्रा - भाग ३.
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रथ यात्रा भाग - १ २०२३

रथयात्रा हिन्दू धर्म की परंपरा का एक दुर्लभ उदहारण है। विश्व की एक मात्रा रथयात्रा है, जिसमे भगवान अपने भक्तो को दर्शन देने के लिए मंदिर के बाहर आते है। जिसमे लाखो की संख्या में श्रद्धालु आते है। भारत देश के अनेक राज्यों में रथयात्रा निकाली जाती है। जिसमे पूरी की रथयात्रा का सबसे अधिक महत्त्व है। क्योकि पूरी हिन्दू धर्म की ४ धामों की यात्रा में से एक यात्रा है। इस रथ यात्रा में शामिल होने के लिए लाखो देशी भक्तो के साथ विदेश से भी भक्त आते है।
भारत देश के अंदर पूरी, अहमदाबाद, बरोडा, सूरत, मथुरा और काशी ऐसे अनेक राज्य में मनाई जाती है। भारत देश के बहार, अमेरिका में न्यूयोर्क, लॉस एंजेलिस,सान फ्रांसिस्को आदि में मनाई जाती है। ब्रिटेन में लंदन, पेरिस, गोवेंट्री आदि के उपरांत टोरेन्टो और बुडापेस्ट में करीब ४० सालो से मनाई जाती है। देश के बाहर, यह यात्रा जून या जुलाई में सप्ताह के अंतिम दिनों में की जाती है। इसे इस्कॉन द्वारा मनाई जाती है।
रथयात्रा क्यों मनाई जाती है?
Jagannath Tri., By User.Raji. srinivas, Image compressed and resized, Source is licensed under CC BY- SA 3.0
रथयात्रा अषाढ़ माह की शुकल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। भारत देश में उड़ीसा के पूरी क्षेत्र का बड़ा महत्त्व है। यहाँ कृष्ण भगवान अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ बिराजमान है। पूरी में भगवान स्वयं अपनी मर्जी से बिराजमान है। पुरे विश्व में तीनो भाई बहन का एकसाथ होने वाला मंदिर एक ही है। रथयात्रा और पूरी क्षेत्र दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। इसके साथ अनेक मान्यता और सत्य जुड़े हुए है।
कहा जाता है की इस मंदिर में भगवान श्री कृष्ण, जगन्नाथ के रूप में साक्षात् बिराजमान है। सुभद्राजी को अपना मायका बहोत ही पसंद था। इसलिए जब भी मायके आती है, तब पुरे नगर में भ्रमण करने की इच्छा होती थी। इसलिए सुभद्राजी को भ्रमण कराने हेतु दोनों भाई बलराम और श्री कृष्ण अपनी बहन को रथ में बिठाकर घुमाते थे। रथयात्रा में शामिल होने के लिए दुनिया के कई देश से भक्त आते है।

तीनो भाई बहन के रथ अलग होते है। सभी के रथ का रंग और उचाई अलग होती है। सबसे पहले बलराम जी का रथ चलता है। बलरामजी का रथ का रंग लाल और हरा रहता है। रथ की उचाई ४५ फिट होती है। रथ का सारथी मताली होता है। रथ की रक्षा वासुदेव करते है। उसे तालध्वज कहते है। रथ पर महादेवजी प्रतिक होता है। रथ के ध्वज को उनानी कहते है। इस रथ के १४ पहिये होते है। इस रथ के घोड़े का रंग नीला होता है।
सुभद्राजी का रथ लाल और काला होता है। रथ की उचाई ४४. ६ फिट होती है। उसे पद्मध्वज या दर्पदलन भी कहते है। रथ के ऊपर दुर्गाजी का प्रतिक होता है। रथ का सारथी अर्जुन होते है। जयदुर्गा रथ की रक्षक होती है।इस रथ के १२ पहिये होते है। इस रथ के घोड़े का रंग भूरा होता है। सुभद्राजी का रथ बलरामजी और जगन्नाथजी के रथ के बीच में चलता है।
जगन्नाथजी का रथ लाल और पीला होता है। रथ ऊपर हनुमानजी, नृसिंह और सुदर्शन चक्र होता है। रथ की रक्षा पक्षीराज गरुड़ करते है जो विष्णुजी का वाहन है। रथ के सारथी का नाम दारुक है। जिस रस्सी से रथ को खींचते है उसे शंखचुड़ कहा जाता है। रथ की उचाई ४५. ६ फिट होती है। उसे नंदिघोष या गरुड़ध्वज और कपिध्वज भी कहते है। रथ के सफ़ेद घोड़ो के नाम हरिदाश्व, शंख, बलाहक और श्वेत होता है। रथ में १६ पहिये होते है। जगन्नाथजी का रथ अंत में चलता है।
तीनो रथो को बनाने के लिए लकडिया अक्षय तृतीया के दिन से आना शुरू हो जाती है। रथो को बनाने में नारियल की लकड़ीया लगती है। रथ यात्रा की समाप्ति के बाद, तीनो रथ को खोल दिया जाता है। कहते है की यह सारी लकड़ी को बाँध कर रखा जाता है। इसे रसोई घर मे, रसोई करने के लिए, आग जलाने के लिए उपयोग में लिया जाता है। इस तरह मंदिर में एक लकड़ी का भी नुक्सान नहीं होता है।
भगवान जगन्नाथ १५ दिन बीमार क्यों रहते है?
भगवान जगन्नाथ का एक अत्यंत श्रद्धालु भक्त थे। उसका नाम माधवदास था। वह अकेले ही रहते थे।अपना काम वह खुद ही करते थे । हमेशा भगवान जगन्नाथ की भक्ति मे मगन रहते थे । माधवदास भगवान की निस्वार्थ भक्ति करते थे। एक दिन माधवदास बीमार हो गए। उसे बूखार और दस्त की बिमारी हो गयी। अकेले होने के कारण बहुत ही परेशान हो गए थे। दस्त की सफाई और कपडे की सफाई करने वाला कोई नहीं था। इसलिए बीमारी के कारण माधवदास बेहोश हो गए । तब भगवान जगन्नाथ खुद भक्त के घर पहुंच गए। माधवदास के कपड़ो की सफाई की। माधवदास को स्नान करवाया। माधवदास के सारे अंग की सफाई की। माधवदास को जब होश आया। वह भगवान जगन्नाथ को पहचान गए।
माधवदास ने भगवान जगन्नाथ को कहा, भगवान आपने मेरे गंदे कपडे धोये और मुजे स्नान करवाया। मेरी इतनी सेवा की। आप तो भगवान हो आपने मेरी बिमारी ही दूर कर दी होती तो मै कभी बीमार ही नहीं पड़ता और आपको परेशान नहीं होना पड़ता। तब भगवान ने कहा, अगर मै तुम्हे बीमार ही नहीं पड़ने देता तो जो कर्म तुम्हे भुगतना है वह अधूरा रह जाता। तुम्हे इस कर्म भुगतने के लिए फिरसे जन्म लेना पड़ता जो, तुम्हारे हित में नहीं था। मगर अब तूम स्वस्थ हो। सिर्फ कमजोरी है। इसलिए यह बीमारी का १५ दिन का समय, मै अपने पर ले लेता हु। यह माधवदास की बिमारी अपने पर लेने के कारण ही भगवान १५ दिन बीमार रहते है।
भगवान जगन्नाथ को स्वस्थ करने के लिए १५ दिन मंदिर के पट याने दरवाजे को बंध रखे जाते है। भगवान को कोई भी भोग नहीं चढ़ाया जाता है। रसोई भी बंध की जाती है। भगवान को सिर्फ काढ़ा ही पिलाया जाता है। वैद्य भी भगवान कि सारवार के लिए आते है। भक्तों के लिए भी रसोई नहीं बनती। १५ दिन के बाद जब भगवान ठीक हो जाते है। तब भगवान जगन्नाथ अषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह से स्नान करने बाहर निकलते है। इसे देव स्नान पूर्णिमा भी कहते है। साल में एकबार स्नान पूर्णिमा के दिन भगवान को स्नान करवाया जाता है। भगवान जगन्नाथ अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया को होने वाली रथ यात्रा के लिए स्वस्थ और तैयार हो जाते है।
२०२३ में रथयात्रा कब है?
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा की शुरुआत अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया, मंगलवार को २० जून २०२३ से होगी। रथ यात्रा अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीया का आरंभ मंगलवार को २0 जून २०२३ को रात्रि १०:०४ मिनट से होगा।
अषाढ़ माह के शुकल पक्ष की द्वितीय की समाप्ति बुधवार २१ जून २०२३ को शाम ०७: ०९ मिनट को होगी।
विशेष माहिती - रथ यात्रा -२ को जरूर पढ़े। जिसमे उड़ीसा के जगन्नाथ पूरी मंदिर से जुडी चमत्कारी घटनाये के बारे में लिखा है। जिसका जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है।
रथयात्रा कैसे निकाली जाती है?
रथ यात्रा के करीब १ माह पहले से रथ बनाने की शुरुआत की जाती है। तीनो भाई बहन के लिए अलग रथ बनाये जाते है। अषाढ़ माह की शुकल पक्ष की द्वितीया को रथ को पूरी में स्थित, भगवान जगन्नाथ के मंदिर के सिंह द्वार पर लाया जाता है। वहां तीनो भाई बहन को स्नान करके नए वस्त्र पहनाकर रथ में बिठाया जाता है। रथ यात्रा भगवान जगन्नाथजी के मंदिर से ३ किलोमीटर दूर अपनी मौसी के घर याने गुंडीचा मंदिर में समाप्त होती है।


रथ यात्रा की शुरुआत मंत्रोच्चार, पारम्पारिक वाद्यों, जय घोष और भगवान जगन्नाथजी के जयकारे से शुरू होती है।सबसे पहले बलरामजी का रथ होता है। बीच में बहन सुभद्राजी का रथ होता है। अंत में भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है। लाखो मानव का जन समुदाय दुनिया के अनेक देश से इस रथ यात्रा में शामिल होने आते है। सब रथ को खींचने के लिए व्याकुल रहते है। रथ की रस्सी को खींचने के बाद अपनेआप को भाग्यशाली मानते है। उन भक्तो के मुख पर यात्रा सफल होने के भाव दिखाई देता है। इतना बड़ा जन सैलाब होने के बावजूद भी,कही पर भी अव्यवस्था भीड़भाड़ या मन मुटाव देखने नहीं मिलता है। पूरा वातावरण श्रद्धा भक्ति के रंग में रंग जाता है।

यह रथ यात्रा भगवान् जगन्नाथजी के मौसी के घर याने गुंडेची माता के मंदिर पहुंचने से पहले भगवान जगन्नाथजी की मनभावन (मिठाई) "गोडा पिठा" खाने के लिए रुकती है। गोडा पीठा उड़ीसा की लोकप्रिय मिठाई है। जो जगन्नाथजी की मनपसंद मिठाई है।
मुस्लिम भक्त साल्विक की मजार
रथयात्रा अब एक भगवान जगन्नाथ का परम भक्त मुस्लिम शख्स साल्विक की मज़ार के पास रूकती है। मुस्लिम शख्स साल्विक की माता हिन्दू थी और पिता मुस्लिम था। वह मुग़ल काल में सेना में एक सैनिक था। एक युद्ध के दरमियान वह धायल हो गया। उसके सर पर चोट लगी और गहरा घाव हो गया। बहुत सारवार के बाद भी वह ठीक नहीं हुआ। इसलिए उसे सेना से निकाल दीया गया।
घाव का इलाज न होने से और बेरोजगार हो जाने से, वह बहुत दुखी हो गया। तब उसकी हिन्दू माता ने साल्विक को भगवान जगन्नाथजी भक्ति करने को कहा। इसलिए मुस्लिम होने के बावजूद, भगवान जगन्नाथजी की दिलसे और भाव से भक्ति करने लगा। एक दिन जगन्नाथजी उसके स्वपन में आये और उसका घाव को भर दिया। साल्विक ने सुबह उठने पर जब घाव को भरा हुआ पाया। तब उसने पूरी में भगवान् के मंदिर में जाकर भगवान् का दर्शन करने गया। मगर हिन्दू न होने की वजह से उसे मंदिर मे प्रवेश नहीं मिला। इसलिए वह दर्शन न कर सका। उसने सोचा की मेरा भाव अच्छा है। इसलिए भगवान खुद मुझे मिलने आएंगे।
उसे भगवान् के दर्शन नहीं हुए। उसके मरण के बाद, जब रथ यात्रा का दिन आया तो रथ जब उसकी मज़ार के पास आया तो रुक गया। बहुत जोर लगाने के बाद भी रथ नहीं हिला। तब भक्तो ने मज़ार के सामने साल्विक का जयकारा लगाया। तब रथ आगे बढ़ा। कहा जाता है की, उस दिन से रथयात्रा का एक पड़ाव मज़ार के पास किया जाता है।
Rathyatra of Jagannath puri ends at gundechi mandir, which is residence of Bhagwan Jagannath s mausi.
बाहुडा यात्रा
पुरे ३ किलोमीटर काटकर रथ गुंडेची मंदिर याने भगवान अपनी मौसी के घर गाजे बाजे के साथ पहुंचता है। रथ यात्रा के एक दिन पहले पुरे मंदिर की सफाई की जाती है। तीनो भाई बहन को पुरे विधिविधान के साथ रथ से उतारा जाता है। अपनी मौसी के घर तीनो भाई और बहन ७ दिन तक रहते है। यहाँ तीनो को मनभावन भोग लगाया जाता है। ७ दिन मौसी के घर रहने के बाद, अषाढ़ माह के शुकल पक्ष के दशम के दिन, तीनो भाई बहन को फिर से रथ में बिराजमान किया जाता है। तीनो रथ को फिरसे रस्से से खींचकर जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। इस वापिस यात्रा को, स्थानिक भाषा में "बाहुड़ा यात्रा" कहा जाता है। मंदिर पहुंचने के बाद, तीनो मूर्ति को बाजे गाजे के साथ फिर से स्थापित की जाती है। इस तरह जगत कि एक मात्र रथ यात्रा, जिसमे भगवान खुद मंदिर के बाहर भक्तो के पास आते है, वह समाप्त होती है।
जय जगन्नाथ
आगे का पढ़े : १ रथयात्रा - भाग -२. २. रथयात्रा - भाग ३.
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