पर्युषण पर्व- २०२४

पर्युषण पर्व- २०२४   

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पर्युषण पर्व में पर्युषण का अर्थ क्या है?
पर्युषण पर्व क्यों और कबसे मनाया जाता है?
“पर्युषण पर्व” कब है?
पर्युषण पर्व क्यों और कबसे मनाया जाता है?
“पर्युषण पर्व” कैसे मनाया जाता है?
तीर्थंकर महावीर जन्म वांचन दिन
पर्युषण पर्व का आखरी दिन कैसे मनाते है?
पारणा का दिन (उपवास खोलने का दिन)
तीर्थंकर महावीर स्वामी का जीवन चरित्र

                                                  
अंत में २४ तीर्थंकर का टेबल जरुर देखे 

पर्युषण पर्व में पर्युषण का अर्थ क्या है?

पर्युषण एक संस्कृत शब्द है। जो परी +उशन नाम के दो शब्द से बना है। परी याने चारो और से + उशन याने बसना। मतलब इस पर्व में सांसारिक माया को चारो और से छोड़कर सिर्फ आत्मा में बसना है।  
पर्युषण जैन धर्म का सबसे पवित्र पर्व है। पर्युषण पर्व जैन समाज के सभी त्योहारों में शिरोमणि है। आज के जमाने में जब लोग में सहिष्णुता लगभग खत्म हो गई है। बाह्य आडम्बर काफी बढ़ गया है। संस्कार लगभग समाप्त हो रहा है। भौतिक सुखो का महत्त्व बहुत बढ गया है। धार्मिक भावनाए ख़त्म हो रही है। अपने मौजशोख पूरा करने, अपने आप को आर्थिक रूप से सम्प्पन करने के लिए लोग कोई भी हद तक गिरने के लिए तैयार है। ऐसे वातावरण से लोगो को बाहर निकालने का काम “पर्युषण पर्व” करता है। 

पर्युषण पर्व आठ दिनों का होता है। इस आठ दिन में हरेक जैन सांसारिक गतिविधियों से दूर होकर, धार्मिक क्रियाओ में ध्यान केन्द्रित करता है। वर्ष दरमियान किये गए गलत और सही कर्म का अपने मन मे हिसाब करता है। वर्ष दरमियान किसी को भी किये गए अन्याय और दुर्व्यवहार को याद करता है। गलती से भी किये गए पाप कर्म को याद करता है। उन सभी पापो,अन्याय और दुर्व्यवहार का प्रायश्चित करता है। सामायिक, प्रतिक्रमण और आलोवणा जैसी धार्मिक क्रियाये करके प्रायश्चित करता है। जिस से दुर्व्यवहार या अन्याय किया हो उसे “मिच्छामी दुक्कडम” कहकर क्षमा मांगी जाती है। 
“मिच्छामी दुक्कडम" का अर्थ है, मन, वचन और काया से, जानकर या अनजाने में मेरे से आप को कोई दुःख पहुचा हो तो मै आप से क्षमा माँगता हूँ।


पर्युषण पर्व क्यों और कबसे मनाया जाता है? 

जैन धर्म के २४ वे तीर्थकर महावीर स्वामी के निर्वाण के ९८० साल के बाद, आनंदपुर जो की अब उसका नाम वड़नगर है, उस के राजा ध्रुवसेन थे। उनके राज में प्रजा सुखी थी। एक वक्त  उनके राज्य में आचार्य कालक सूरी जी महाराज चातुर्मास के लिए पधारे थे। दुर्भाग्य से उस समय राजा ध्रुवसेन का पुत्र का निधन हो गया। पूरा राज परिवार शोकमग्न हो गया। समय के साथ राज परिवार के सदस्य धीरे धीरे शोक से बाहर आ गए। मगर राजा ध्रुवसेन शोक से बहार नहीं आ रहे थे। यह समाचार चातुर्मास के लिए पधारे हुए  आचार्य कालक् सूरीजी महाराज को मिले। 

तब आचार्य कालक् सूरीजी महाराज ने राजा धुवसेन को पुत्र के शॉक से बहार लाने के लिए एक शास्त्र सुनाने का निर्णय लिया।  यह सूत्र सभी साधू भगवंत चातुर्मास के ५० वे दिन याने की, सवत्सरी के दिन, रात के समय आपस में अध्ययन करते है। इस शास्त्र का नाम कल्सूप सुत्र है। जब आचार्य कालक् सूरीजी महाराज ने राजा धुवसेन को शास्त्र सुनाया तब जाकर राजा पुत्र के शॉक से बाहर आ गए। इसलिए कलक सूरीजी महाराज ने यह शास्त्र पुरे शास्त्र को पुरे संघ को सुनाने का निर्णय लिया ताकि सभी का शोक, दुःख और तकलीफ दूर हो। 

तब से इस शास्त्र को आठ दिन के पर्व में सुनाया जाता है। जिस में जैन धर्म के २४ तीर्थंकर के पूर्ण जीवन की घटना का वर्णन  किया जाता है। राजा धुव सेन की इस घटना के बाद से पर्युषण का महापर्व मनाया जाता है। तब से इस शास्त्र को आठ दिन के पर्व में सुनाया जाता है।

                                        “पर्युषण पर्व” कब है?

इस साल पर्युषण पर्व का प्रारंभ श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की १४ को याने ०१ सितम्बर २०२४ , रविवार को  है।  
इस पर्युषण पर्व की समाप्ति याने सवत्सरी भाद्रपद के शुकल पक्ष की ४ को  याने ०७ सितम्बर २०२४, शनिवार को है। 
जब की महावीर वांचन दिवस भाद्रपद माह की शुकल पक्ष की १ याने ०४ सितम्बर २०२४, शनिवार को है। 

       पोस्ट जरूर पढ़े: १  सोंठ (सूखा अदरक) २ गणेश चतुर्थी ३   मधुमेह   ४.  आंवला /आमला

     अंत में २४ तीर्थंकर का टेबल जरुर देखे। 

            “पर्युषण पर्व” कैसे मनाया जाता है?

                                           
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पर्युषण आठ दिन के होते है। इन आठ दिन जैन समाज हरी सब्जिया, कंदमूल जैसे कांदा, बटाटा, गाजर याने जमीन के नीचे पकनेवाली सभी सब्जिया नहीं खाते है। पानी भी उबालकर ही पीते है। खाना सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच ही खाते है।सूर्यास्त के बाद पानी भी नहीं पीते है। ज्यादातर जैन लोग पहला, पाँचवा और आखरी उपवास जरुर करते है। पाचवे दिन “तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक (दिन)” का वांचन होता है।  उपवास के बाद, दुसरे दिन नवकारशी, याने सूर्योदय के २.३० से ३.०० घंटे के बाद ही खाना होता है।
 
सुबह में नवकारशी के बाद, जैन लोग उपाश्रय में जाते है।में महाराज साहेब, याने जैन साधू व्याख्यान करते है। जिससे सुनने के लिए सभी जैन जाते है। जैन मुनि, धर्म ज्ञान देते है। जैन धर्म में कुल २४ तीर्थंकर होते है। जैन मुनि इन २४ तीर्थंकर की जन्म, संसार त्याग, तप और मोक्ष की बाते बताते है। उनके जीवन में घटित प्रेरणादायक प्रसंग बताते है। वो लगभग १ से १.३० घंटा चलता है। आखिर में जैन मुनि जिस भी लोग को उपवास, एकासना और कोई भी तपस्या हो तो उसके मुताबित के “पच्चखाण” देते है|

फिर शाम को सूर्यास्त के पहले भोजन करके, अपने धर्मस्थानक में जाते है। उस वक़्त सभी जैन, अपने साथ मुह्पत्ति, कटासनु और रजोणा लेकर धार्मिक क्रिया के लिए जाते है। मुह्पत्ति मतलब मुह के ऊपर सफ़ेद कलर का मुह को ढकने के लिए बांधा हुआ कपड़ा, जिस की वजह से बोलने पर कोई भी सूक्ष्म जिव की हत्या न हो। कटासनु मतलब जमीं पर बैठने के लिए आसन, रजोणा एक लकड़ी के आगे बहोत सारे खुल्ले धागों से बना हुआ होता है।  जिसे बैठने के लिए आसन बिछाते समय जमीन पर फिराया जाता है, ताकि जमीन पर रहे हुए कीड़े या मकोड़े दूर हो जाए, ताकि जमीन पर बैठते वक़्त उन जीवो की ह्त्या न हो। 

धार्मिक क्रिया में “सामायिक” की जाती है।इस क्रिया समजाती है की, सभी जैन को अपने आप में प्रवेश करके खुद के अंदर निरीक्षण करना है। अपने में रहे हुए गुण और दोष को समजना है। दूसरी क्रिया “प्रतिक्रमण” की होती है| जिस क्रिया के मुताबिक “प्रति” याने वापस "क्रमण" याने आना। प्रतिक्रमण याने की सांसारिक प्रवृति में जहा भी मन अटका पडा है वहा से मन को “वापस" लाके धार्मिक क्रियाओं में लगाना। यह सब “सामायिक" और “प्रतिक्रमण” की प्रवृति में करीब २ घंटा होता है। इस प्रकार सभी जैन का पूरा दिन व्यतीत होता है।  इस तरह ८ दिन पसार होते है। 

तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक वांचन दिन 

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पर्युषण का पाचवा दिन तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म वांचन के लिए और जन्म दिन मनाने के लिए रखा गया है।  उस दिन ज्यादातर जैन उपवास रखते है। महावीर जन्म वांचन के दिन, उपाश्रय में जैन मुनि महावीर स्वामी का चरित्र और जीवन यात्रा के बारे में बताते है। 

महावीर स्वामीजी की माता त्रिशला देवी को महावीर स्वामी के गर्भावस्था दरमियान आये हुए १४ स्वप्न, जन्म, उनके विवाह, पुत्री जन्म, माता पिता का अनसन से संसार त्याग ,महावीर स्वामी का संसार त्याग, महावीर स्वामीजी की १२.५ साल की कठोर तपस्या, तपस्या के दरमियान उन्हें दिए गए उत्सर्ग, भयंकर उत्सर्ग को समता से भुगतना, केवल ज्ञान की प्राप्ति करना, समाज को अँधश्रध्दा से बहार निकालना, बलि प्रथा बंध करवाना, समाज में रहे दूषण को दूर करना आदि विषयो पर व्याख्यान द्वारा समजाते है। 

जैन मंदिर जिसे देरासर कहते है। वहा पर महावीर स्वामी की माता को आये हुए १४ स्वप्न का कार्यक्रम किया जाता है। १४ स्वप्न थे १.ऐरावत हाथी.२.नंदी ३.सिंह ४.देवी लक्ष्मी जी ५.फूलो का हार ६.पूर्णिमा का चन्द्र ७.सूर्य ८.धर्म धव्जा ९.चांदी का कलश १०.कमल का फुल ११.क्षीर समुद्र १२.देव विमान १३.रत्नों से भरा कुंभ १४.निर्धूम अग्नि। 

इस कार्यक्रम में देरासर की छत के करीब से १४ स्वप्न एक के बाद एक को उतारा जाता है। हरेक स्वपन के ऊपर ”मण के हिसाब से घी की बोली” लगती है, जो जैन श्रावक ज्यादा “मण घी की बोली” बोलता है। वह स्वप्न को अपने घर ले जाता है। “एक मण घी” का भाव फिक्स किया होता है। उस भाव के मुताबिक रूपया देरासर में जमा करवाया जाता है। 

इस तरह १४ स्वप्न की बोली का आदेश दिया जाता है। सबसे ज्यादा “मण घी की बोली" लक्ष्मी जी  के स्वप्न के लिए लगती है। वैसे ही महावीर स्वामी के जन्म के बाद “पारणा” की भी बोली का आदेश दिया जाता है। जो जैन सबसे ज्यादा “मण घी की बोली” बोलता है। उसके घर में महावीर स्वामी का “पारणा” जाता है। १४ स्वपन और महावीर स्वामी का पारणा को घर में लाना अति शुभ माना जाता है। यह कार्यक्रम यहाँ समाप्त होता है। 

अब जिस के घर महावीर स्वामी का पारणा लिया होता है, उस घर मे सभी जैन महावीर स्वामी को पारणे में झुलाने जाते है। महावीर स्वामी के दर्शन का लाभ लेते है।  इस प्रकार महावीर स्वामी के वांचन दिन मनाया जाता है। 

                                         पर्युषण पर्व का आखरी दिन कैसे मनाते है?                                                                                                                 
                                                                                                                                                                                                    Sadhvi Pramukh Shree Kanak Prabha ji, By Rishabh Dugar Jain,JPG image compressed and resized, Source is licensed under CCBY-SA 4 0                                                                   Praying man Prayer Young- Free image on pixabay, JPG image compressed and resized, source is licensed under cc Public Domain Mark                                                                                                                                                                                 
पर्युषण पर्व का आखरी दिन को “सवत्सरी” कहते है। इस दिन का सबसे महत्व का हिस्सा है “आलोवणा”  इस के बगैर, पर्युषण पुरे नहीं होते है।  ”आलोवणा“ के लिए दोपहर का समय रखा जाता है। इस दिन ज्यादातर जैन उपवास रखते है। इस में जैन मुनि पुरे वर्ष दरम्यान किये गए पापो का प्रायश्चित करवाते है। इसमें पूरा जैन समाज हाजिर रहता है। इसका हरेक जैन के लिए बहोत महत्व रहता है। अपना कामकाज, नौकरी, धंधा छोड़कर अचूक हाजिर रहते है। 

पर्युषण के अंतिम दिन का प्रतिकमण को "सव्त्सरी प्रतिक्रमण" कहते है। जो हरेक जैन करता ही है। इस प्रतिकमण की समाप्ति के बाद, सभी जैन के दुसरे को “मिच्छामी दुक्कडम” करते है। वर्ष दरमियान कोई भी मन दुःख एक दुसरे के व्यवहार से लगा हो तो “मिच्छामी दुक्क्डम“ करके खत्म किया जाता है | इस तरह सवत्सरी का दिन पूरा होता है|

पारणा का दिन (उपवास खोलने का दिन) 
     
                                                    JPG Image shows, Parna day, A fast breaking day by jain community after tapasya in "Paryushan Parv" Religeous Festival.

पर्युषण पर्व के समाप्ति के बाद का दूसरा दिन का भी बहोत महत्व है| इस दिन पर्युषण में जिस जैन भाई, बहनों ने बड़ी तपस्या की होती है ,उन के “पारणा" का दिन होता है।  उस दिन धर्म स्थानक में, इन लोगो का उपवास खोला जाता है, याने "पारणा" करवाया जाता है। उस दिन तपस्वी के रिश्तेदार और धर्म स्थानक के ट्रस्टी मिलकर पारणा करवाते है। 

जैन में तपस्या कई तरह की होती है।छठ याने दो उपवास, अठ्ठम याने तीन उपवास का पारणा तो पर्युषण में ही हो जाता है। मगर “अठ्ठाइ“ याने ८ उपवास, “मासक्षमण” याने ३० उपवास, वर्षीतप याने की साल भर, एक दिन खाना और एक दिन उपवास किया जाता है। ये सब तप का पारणा सवत्सरी के दुसरे दिन किया जाता है। इसलिए बड़ी तपस्या के पारणा का दिन होने की वजह से इस दिन का भी बहोत महत्व होता है। 

तीर्थंकर महावीर स्वामी का जीवन चरित्र 
4th day of Paryushan Parv festival, is to listan Tirthankar Mahavir life story.JPG  image represent 14 dreams seen by mother before birth of a Tirthankar Mahavir.
  
जैन धर्म में २४ तिर्थंकर हुए है। महावीर स्वामी २४ वे तीर्थंकर है। महावीर स्वामी का जन्म इस्वीसन पूर्व ५९९ की चैत्र मास की शुकल पक्ष की तेरस को हुआ था। जन्म स्थल वैशाली याने के आज के बिहार राज्य के कुंदनपुर में हुआ था। उसके पिता का नाम सिध्धार्थ था। माता का नाम त्रिशाला देवी था। 

जब महावीर स्वामी अपनी माता के गर्भ थे, तब उनकी माता त्रिशाला देवी को १४ स्वप्न आये थे। इस १४ स्वप्न का अर्थ विद्वानो ने बड़ा ही शुभ बताया था और कहा था की,आनेवाला बालक बहोत ही भाग्यशाली है। आनेवाला बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या फिर तीर्थंकर बनेगा। बालक अपने माता के गर्भ में ही थे की उसके पिता का राज्य धन धान्य से भर गया। सुख ,समृध्धि बढ़ने लगी। प्रजा के सुख में भी वृध्धि होने लगी। इस प्रकार राजा और राज्य में चारोओर से सुख समृध्धि की वृध्धि होने लागी।  इसलिए बालक का नाम "वर्धमान" रखा गया। 

                                                                          JPG Image represents,Qualities like Courage and Fearlessness of child vardhaman

वर्धमान बचपन से ही पराक्रमी और निडर थे। एक दिन वर्धमान अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे की, अचानक एक बड़ा जहरीला नाग आ गया। भय के मारे सब दोस्त छिप गए तो कोई पेड़ पर चढ़ गए। मगर वर्धमान न तो डरे न भागे। उन्हों ने नाग को पूछ से पकड़ कर रस्सी तरह घुमाया और दूर फेक दिया। 

वैसे ही एक दिन, खेल के बीच एक पागल और मदमस्त हाथी आ गया। सब बच्चे गभराकर भाग गए। बालक वर्धमान हाथी की सुंठ पकड़ कर हाथी पर चढ़ गया। इस तरह पागल हाथी को वश में कर लिया। 

बालक वर्धमान निडर और पराक्रमी तो थे। साथ में वह अत्यंत बुध्धि मान भी थे।  ९ वर्ष की आयु में ही उन्हों ने पूरा व्याकरण शास्त्र का अभ्यास कर लिया था। उन्हें कला, युध्धनिति, मनो वैज्ञानिक के विषय और राज्य वहीवट का भी संपूर्ण ज्ञान था।  

बचपन से ही वर्धमान काफी दयालु थे। हरेक जिव के प्रति करुणा का भाव था। बचपन से ही,उन्हों ने वैराग्य पूर्ण जीवन जीने का फैसला कर लिया था। मगर उनकी माता की इच्छा के कारण ही वर्धमान ने राज कुमारी यशोदा से शादी की थी। उन्हें एक बेटी थी, जिसका नाम प्रिय दर्शिनी था। बाद में उनका विवाह, जमाली नामक राजा से हुआ था। 

वर्धमान राज कुमार होने के कारण अपार वैभव के बीच पले बड़े थे। मगर बचपन से ही, वैराग्य पूर्ण जीवन जीने का तय कर लिया था। मगर अपने माता और पिता की सहमति नहीं थी इसलिए उन्हों ने दीक्षा ग्रहण नहीं की। इसलिए जब उनके माता पिता ने अनशन व्रत से संसार का त्याग किया।  तब उनकी उम्र २८ साल थी। तब से, संसार में होते हुए भी, वैराग्य पूर्ण जीवन ही जीते थे। माता पिताके अवसान के २ साल बाद इन्हों ने संसार त्याग दिया। 

वर्धमानजी ने राज्य कुंदनपुर के वन में ही साधू जीवन की शुरुआत की। २ दिन बाद ही, उन्हों ने केश लोचन (हाथो से खींच के बालो को निकलना) किया और एक सफ़ेद वस्त्र को छोड़कर, सभी वस्त्रो का भी दान कर दिया। ३० साल की आयु में पत्नी, बेटी, रिश्तेदार, राजा का वैभवी जीवन छोड दिया।  वन में, हिंसक पशुओ के बीच, अन्न और जल का त्याग करके कठोर तपस्या का आरंभ किया। यह सब देखकर, लोग उन्हें “महावीर” के नाम से बुलाने लगे।  इस प्रकार राजकुमार “वर्धमान” महावीर बने।                                                                                                                                                                                                                                                                       
JPG Images represent different type of harassment is given to Tirthankar Mahavir to break his Tapan by Sangam Dev and a sheferd.

महांवीर स्वामी ने अपने साधू जीवन में कठोर तपस्या की। जिस में १२.५ साल की कठोर तपस्या में उन्हों ने अनेक उपसर्ग को सहन किया। उस में चरवाहों ने कानो में लकड़े की शूल ठोक दिए। क्रोधित ग्वाला ने महावीर स्वामी पर कोड़े फटकारे। शुरपानी नामक यक्ष ने मदमस्त हाथी, विकराल सिंह और विष से भरे नाग का रूप लेकर महावीर स्वामी  को विचलित करने की खूब कोशिश की।
 
संगम देव नामक देव ने तीर्थंकर महावीर अनेक संकट दिए।  जिसमे भयंकर वर्षा और तूफ़ान फैलाया। चिट्टी, बिच्छु, मच्छर, उंदीर और नाग से कटवाया। राक्षस, सिंह, जंगली पशुओ के रूप लेकर डराया। काल चक्र से मारने की कोशिश की। अप्सरा से ध्यानभंग करवाना आदि अनेक उपसर्ग सहन किये। मगर महांवीर स्वामी ने कभी संयम नहीं खोया।  
             
                         
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वैशाख सूद १० के चौथे प्रहार में, रुजू पालिका के नदी के तट पर, साल वृक्ष के छाया में षष्ठी का तप करके गोधोविक आसन में ध्यान में लींन थे। तब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। याने ४२ वर्ष की साधू जीवन में केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर बन गए। अपने ४५१५ दिन की तपस्या में सिर्फ ३४८ दिन ही अन्न ग्रहण किया। जो भी बिना खाने के पात्र, हाथ में जितना भी समाया इतना ग्रहण करके तपस्या की।
 
केवलज्ञानी होने के बाद, वह हंमेशा विहार करते रहे, याने अलग अलग गावो में घूमते रहे। लोक कल्याण का काम करते रहे। लोगो में धर्म की भावना बनाते रहे। जैन धर्म मे साधू, साध्वी, श्रावक और श्राविका ऐसी व्यवस्था बनाई। पशु बलि, अंधश्रधा, भेदभाव आदि रिवाजो को दूर किया। कई पापीओ का अपने केवलज्ञान से भव पार किया। ७२ साल की उम्र में आसो सूद अमास के दिन याने की दिवाली के दिन तीर्थंकर महावीर का निर्वाण याने  मुक्ति की प्राप्ति हुयी। 
 
पर्युषण पर्व पूरी दुनिया में  एक मात्र ऐसा त्यौहार है जो बिना आडंबर, धार्मिक विधि से और तपस्या से पूरा होता है।

                                               जय जिनेन्द्र और मिच्छामी दुक्कडम

आगे का पढ़े :  १.श्रावण मास      २. श्राद्ध पक्ष  

इस पोस्ट में दी हुई माहिती जैन धर्म स्थानक और  जैन पुस्तिका से और इन्टरनेट से ली है। फिर भी अनजाने में कोई भूल चुक हुई हो तो हमारे सभी जैनधर्म प्रेमी और पोस्ट पढ़ने वालो को "मिच्छामी दुक्कडम" कहता हु। 


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पहले तीर्थंकर श्री रुषभ स्वामी को कैलाश पर्वत पर, १२ वे तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी को चंपापुरी में, २२ वे तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामी को गिरनार पर्वत पर और २४ वे तीर्थंकर महावीर को पावापुरी में मोक्ष प्राप्त किया। बाकी २० तीर्थंकर ने सम्मेत शिखर में मोक्ष प्राप्त किया।
नंबर तीर्थंकर माता पिता जन्म भूमि च्यवन कल्याणक जन्म कल्याणक दीक्षा कल्याणक केवल ज्ञान कल्याणक निर्वाण कल्याणक केवलज्ञान वृक्ष लांछन
श्री ऋषभ स्वामी मरू देवी नभि राजा अयोध्या ज्येष्ठ वद ४ फाल्गुन वद  ८ फाल्गुन वद ८ माध वद ११ पोष वद १३ न्यु ग्रोध/कैलाश वृषभ
श्री अजितनाथ स्वामी विजया राणी जितशत्रु राजा अयोध्या बैशाख सूद १३ माध  सुद ८ पोष वद ९ पोष सुद ११ चैत्र सुद ५ सप्तछंद गज
श्री संभवनाथ स्वामी सेना राणी जितारी राजा श्रावस्ती फाल्गुन सूद ८ माघ  सूद    १४  मार्गशीर्ष सुद १५ आसो वद ५ चैत्र ५ सालतर/ अश्व
श्री अभिनंदन स्वामी सिध्धार्था देवी संवर राजा अयोध्या बैशाख सुद ४ माघ  सुद २ माघ  सुद १२  मार्गशीर्ष वद १४ बैशाख सूद ८ राजधनी/देवदार कपि
श्री सुमतिनाथ स्वामी मंगला देवी श्री मेघरथ राजा अयोध्या श्रावण सुद २ बैशाख सुद ८ बैशाख सुद ९ चैत्र सुद ११ चैत्र सुद ९ प्रियंगु कौच पक्षी
श्री पद्मप्रभ स्वामी सुसीमा देवी श्रीधर राजा कौशाम्बी पोष वद ६ अश्विन वद १२ अश्विन वद १२ चैत्र सुद १५ कार्तिक वद ११ वटवृक्ष कवल
श्री सुपार्श्वनाथ स्वामी पृथ्वी देवी सुप्रथिष्ठ राजा वाराणसी श्रावण वद ८ जयेष्ठ सुद १२ जयेष्ठ सुद १३ माघ  वद ६ माघ  वद ७ शिरीष स्वस्तिक
श्री चन्द्रप्रभ स्वामी लक्ष्म देवी श्री महसेन राजा चंद्र फाल्गुनी वद ५ मार्गशीर्ष वद १२ मार्गशीर्ष वद १३ माघ वद ७ श्रावण वद ७  पुन्नाग  चन्द्र
श्री सुविधिनाथ/श्री पुष्पदंत स्वामी रामा राणी सुग्रीव राजा काकंदी माघ वद ९ कार्तिक वद ५ कार्तिक वद ६ कार्तिक सुद ३ भाद्रपद सुद ९ मालुर मगर
१० श्री शीतलनाथ स्वामी नंदा राणी दृढ राजा भद्रिल नगर चैत्र वद ६ पोष वद १२ पोष वद १२ मार्गशीर्ष वद १४ चैत्र वद २ ढलक्ष श्रीवच्छ
११ श्री श्रेयांनाथ सनाथ स्वामी विष्णुदेवी विष्णु राजा सिंहपुर बैशाख सुद ६ माघ  वद १२ माघ  वद १३ पोष वद ३ आषाढ़   वद ३ अशोक गैंडा
१२ श्री वासुपूज्य स्वामी जया देवी वसुपुज्य राजा चंपा पूरी ज्येष्ठ सूद ९ माघ  वद १४ फाल्गुन वद १५ माघ  सुद २ अषाढ़ सूद १४        पाटली/चंपापुरी 

भैसा/
१३ श्री विमलनाथ स्वामी जय श्यामा देवी कृतवर्मा कम्पिलपुर जयेष्ट वद १० माघ सुद ३ माघ सुद ४ पोष सुद ६  आषाढ          वद  ७ जामुन 

सूअर
१४ श्री अनंतनाथ स्वामी सुयशा देवी सिंह सेन अयोध्या आषाढ वद ७ चैत्र वद १३ चैत्र वद १४ चैत्र वद १४ चैत्र सुद ५ पीपल बाज
१५ श्री धर्मनाथ स्वामी सुव्रत देवी राजा भानु बैशाख सुद ७ माध सूद ३ माध सूद १२ पोष सूद १५          जयेष्ट सूद   ५                 ढाक  वज्र
१६ श्री शांतिनाथ स्वामी अचिरा देवी विश्वसेन हस्तिनापुर श्रावण वद ७ वैशाख वद १३ वैशाख वद १४ पोष सुद ९ वैशाख वद १३ साल मृग
१७ श्री कुंथूनाथ स्वामी श्री देवी सुर सेन हस्तिनापुर आषाढ़ वद ९ चैत्र वद १४ चैत्र वद ५ चैत्र वद ५ चैत्र वद १  लोंधा  बकरा
१८ श्री अरनाथ स्वामी देवी राणी सुदर्शन राजा हस्तिना पुर फाल्गुन सूद २ मार्गशीर्ष सुद १० मार्गशीर्ष सुद ११ कार्तिक सुद १२ मार्गशीर्ष सुद १० आम नंदाव्रत/
१९ श्री मल्लिनाथ स्वामी प्रभावती राणी कुंभ राजा मिथिला फाल्गुन सुद ४ मार्गशीर्ष सुद ११ मार्गशीर्ष सुद ११ मार्गशीर्ष सुद ११ फाल्गुन सूद १२ अशोक कुंभ
२० श्री मुनीसुव्रत स्वामी पद्मा देवी सुमित्र राजा राज गृही श्रावण सुद १५ बैशाख सुद ८ फाल्गुन सुद १२ महा वद १२ बैशाख वद ९  चंपक  कछुआ
२१ श्री नमिनाथ स्वामी वप्रा राणी विजय राजा मिथिला अश्विन सुद १५ आषाढ़ वद ८ जयेष्ट वद ९ मार्गशीर्ष सुद ११ चैत्र वद १० बकुल नील कँवल
२२ श्री नेमीनाथ स्वामी / श्री अरिष्टनमिनाथ शिवा देवी समुद्र विजय राजा शौर्य अश्विन वद १२ श्रावण सुद ५ श्रावण सुद ५ भाद्रपद वद ३० आषाढ़ सूद ८ जल वेतरा/गिरनार शंख
२३ श्री पार्श्वनाथ स्वामी वामा देवी अश्वसेन राजा वाराणसी फाल्गुन वद ४ मार्गशीर्ष वद १० मार्गशीर्ष वद ११ फाल्गुन वद ४ श्रावण सुद ८ धातकी सर्प
२४ श्री महावीर स्वामी त्रिशला देवी सिध्धार्थ राजा क्षतिय कुं अषाढ़ सूद ६ चैत्र सूद १३ कार्तिक वद १० बैशाख सुद १० अश्विन वद ३० शाल/पावापुरी सिंह
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