रथ यात्रा भाग - ३ २०२४
Rath Yatra part - 3 image represents, Sri Jagannath Temple, By SUDEEP PRAMANIK, Image compressed and resized, Source i
अनुच्छेद (पेरेग्राफ) | शीर्षक |
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१ | भाव के भगवान |
२ | जगन्नाथ मंदिर क्यों बना? |
३ | मंदिर किसने और कैसे बनाया? |
४ | मंदिर का निर्माण |
५ | निल माधव या नीलमणि की चोरी |
६ | राजा इंद्रद्युम की माफ़ी |
७ | मूर्तियों का निर्माण |
८ ९ |
मूर्तियों का स्थापन |
नयी मूर्ति में निलमणि या ब्रह्म पदार्थ का स्थापन भाव के भगवान रथ यात्रा विष्णु भगवान का कृष्ण अवतार का जिवंत उदहारण है। कृष्ण भगवान इस जगन्नाथजी के रूप में "भाव के भगवान" कहे जाते है। इस अवतार में ऐसे कही ऐसे प्रसंग है जिससे से पता चलता है की, भगवान भक्त की भावना के भूखे है। चाहे उसका भक्त कोई भी हो। जैसे वह आमिर, गरीब , साधु, संसारी, या कोई भी धर्म का हो। भगवान सिर्फ उसकी शुद्ध भावना को देखते है। जरुरत पड़ी तो खुद उठकर भक्त के पास जाते है। ऐसे कही प्रसंग मंदिर के लोगो से सुनने में आते है। इसे पुराणो में कलियुग का वैकुण्ठ भी कहा जाता है। |
दुनिया में एक मात्र मंदिर है, जिसके भगवान खुद मंदिर के बहार आकर रथ में सवार होकर भक्तो को दर्शन देते है। यह मंदिर पूर्वीय भारत में बंगाल के कड़ी के किनारे उड़ीसा राज्य के पूरी शहर में स्थित है। धार्मिक ग्रंथो में इसे पुरुषोत्तम क्षेत्र या श्री क्षेत्र भी कहा जाता है। यह मंदिर भगवान विष्णुजी को समर्पित है। कहते है की, जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर आते है। तब वह हिमालय के केदारनाथ में स्न्नान करते है। गुजरात के द्वारिका में नए वस्त्र धारण करते है। पूरी के इस मंदिर में भोजन करते है। अंत में दक्षिण में विश्राम करते है। भगवान स्वयं इस मंदिर में भोजन करते है इसलिए यहाँ की रसोई दुनिया की सब से बड़ी और अनोखी और चमत्कारी है।
रथयात्रा भाग- १ जरुर पठे रथयात्रा कब, क्यों और कैसे मनाई जाती है ? रथयात्रा भाग -२ जरुर पठे जगन्नाथ मंदिर के १५ चमत्कार जिसे के सामने विज्ञानं भी फ़ैल है।
जगन्नाथ मंदिर क्यों बना?
कहा जाता है की, कृष्ण द्वारिका में अपनी १६१०८ रानी के साथ निवास करते थे। एक दिन नींद में उन्हों ने राधाजी का नाम लिया। यह देखकर सभी रानी सोच में पड गयी। सभी रानियों ने सोचा की, हम सब कृष्ण का इतना ध्यान रखते है, फिर भी वह राधा को नहीं भूल पाए है। इस का कारण रुकमणीजी और अन्य पटरानी ने कृष्णजी की बहन सुभद्राजी और माता रोहिणी को मिलकर पूछा। तब माता रोहिणी ने सुभद्राजी को किसी को भी कमरे में न आने देने के लिए द्वार पर ही खड़ा रखा। क्योकि सुभद्राजी के सामने कृष्ण लीला की बाते रोहिणी जी को करना योग्य नहीं लगा। दूसरा कारण यह था कि, कृष्ण लीला की बाते करते वक़्त खुद कृष्णजी ना सुन ले
Rathyatra part-3 represents,wives of Lord Krishna request Krishna's mother Rohini to tell about krishna leela shown by Lord Krishna in Gokul.
माता रोहिणी ने गोकुल में, बाल गोपाल के रूप में, की हुई कृष्ण लीला सुनाई। तब सभी रानीयो को ऐसा लगा, जैसे सब लीला अभी उनके सामने हो रही है। सुभद्राजी तो मानो अपने बचपन में पहुंच गयी। इतनी मंत्र मुग्ध हो गयी की उसे पता ही नहीं चला की कृष्ण और बलराम कब आये। कृष्ण और बलराम ने भी माता रोहिणी की बाते सुनी। यह दोनों भी मंत्रमुग्ध हो गए। दोनों ही अपने बचपन में पहुंच गए। तीनो अपने बचपन की यादो मे चले गये। तीनो को मानो होश ही न रहा।

मंदिर किसने और कैसे बनाया?
*Rathyatra Part- 3 image represents, Nil Madhav means Krishna Dil Preseved by Vishvvasu in a cave. *Rathyatra Part- 3 image represents, Nil Madhav means Krishna Dil is daily worshipped by Vishvvasu
जब भगवान कृष्ण का देहांत हुआ। उनके अग्नि संस्कार में उनका पूरा शरीर पंचमहाभूत में मिल गया। मगर भगवान कृष्ण का दिल ज़िंदा रहा। कहते है की इस दिल को नदी में बहा दिया गया। इस दिल ने निल माधव का रूप ले लिया। पानी में बहते बहते वह मूर्ति नीलांचल के पास, एक सबर नामक भील जाति के राजा को मिली। उन्हों ने उसे एक गुफा में स्थापित किया और हर रोज पूजा करने लगे। राजा उसे अपने कुलदेवता के रूप में ही स्वीकार कर लिया। इस तरह राजा के वारसदार भी अपने पूर्वज की तरह ही सेवा करते थे। जब भील के राजा विश्ववसु थे। उसे एक ही बेटी थी। उसका नाम ललिता था।
मंदिर का निर्माण

उस वक्त मालवा के राजा इंद्रद्युम थे। वह विष्णु के बड़े भक्त थे। वह एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे। जिसका दर्शन करने से बड़े से बड़ा पापी का भी उद्धार हो जाए। इसलिए उसने कही संतो और महात्मा को मिला। उसमे से एक बुज़ुर्ग संत ने नीलांचल पर्वत में बिराजमान निल माधव की मूर्ति के बारे मे बताया। तब राजा इंद्रद्युम ने मूर्ति के पते के बारे में पूछा। संत ने कहा की मुझे उसका पता तो नहीं मालुम लेकिन निल माधव मूर्ति चमत्कारी है।राजा इंद्रद्युम को उसी रात स्वपन आया की राजा इंद्रद्युम तुम मंदिर बना लो। उचित समय पर मूर्ति का भी स्थापन हो जाएगा।
स्वप्न के मुताबित, राजा इंद्रद्युम ने मंदिर बना लिया। राजा ने मूर्ति की खोज के लिए चारो दिशामे अपने विद्वान दरबारी को भेजे। उसमे उम्र में छोटे और काबिल दरबारी विद्यापति भी थे। वह मूर्ति की खोज में एक घने जंगल में पहुंच गए। वहा उनको पहाड़ की दूसरी ओर से दिव्य ध्वनि सुनाई दी। जब विद्यापति वहा पहुंचे तब उनकी मुलाकात राकुमारी ललिता से हुयी। राजा याने उनके पिता का नाम विश्ववसु था। विद्यापति पर एकबार सिंह हमला करने जा रहा था तब ललिता ने उसे बचाया। विद्या पति और ललिता एक दूसरे को पसंद करने लगे। दोनों ने विवाह कर लिया।
निल माधव या नीलमणि की चोरी
जब ललिता ने कहा की आपके बाद कुलदेवता की पूजा विद्यापति को ही करनी है। क्योकि मै आपकी एकलौती संतान हु। तब राजा विद्यापति को आँख के ऊपर पट्टी बांधकर पहाड़ी की गुफा में ले गए। राजा विश्वासु ने कुलदेवता के दर्शन करवाए। तब विद्यापति समझ गया की उसे यही निल माधव की मूर्ति उसे चुरानी है। विद्यापति को राजा जब आँखों में पट्टी बाँधकर ले जा रहे थे। तब विधापति ने मार्ग के ऊपर राइ के दाने बिखरते गए थे।
थोड़े समय बाद जब राइ के दाने में से छोड़ बने और ऊपर पिले फूल आये। तब विद्यापति के लिए गुफा तक पहुंचने का रास्ता स्पष्ट हो गया। विद्यापति ने अपने माता पिता के मिलने का बहाना बनाया और मूर्ति चुरा कर अपने राजा इंद्रद्युम को दे दी। दूसरे दिन भील के राजा जब पूजा करने गए तब मूर्ति को अपनी जगा पर नहीं दिखी। राजा विश्ववसु समझ गए की विद्यापति ने उनके साथ धोखा किया है।
विद्यापति ने जब अपने राजा इंद्रद्युम को मूर्ति दी। उस रात राजा स्वपन आया की, नदी में एक बड़ा लकड़े का टुकड़ा (जीसे स्थानिक भाषा में दारु कहते है।) तैर रहा है उसे बाहर निकालो। उसी लकड़ी में से हमारी मुर्तिया बनाकर मंदिर में स्थापन करो। इस नीलमणि को मेरी मूर्ति में स्थापन गुप्त तरीके से करना। इस नीलमणि को कोई भी देखने न पाए। पूरी गुप्तता से यह काम करना होगा। अगर किसी ने देख लिया तो यह नीलमणि विलीन हो जाएगा।
राजा इंद्रद्युम की माफ़ी

जब की राजा इंद्रद्युम ने निल माधव मूर्ति (नीलमणि) धोके से चुराई थी। इसलिए राजा इंद्रद्युम ने लकड़ी के टुकड़े को बाहर लाने की बहोत कोशिश की मगर लकड़ा हिला भी नहीं। तब राजा को समझ में आया की उसने नीलमाधव की मूर्ति (नीलमणि)धोके से चुराई है। इसलिए ही यह विध्न आया है। राजा इंद्रद्युम विद्यापति को लेकर भील के राजा विश्ववसु के पास गए। उनसे माफ़ी मांगी। राजा इंद्रद्युम ने कहा की असल चोर मै हु। विद्यापति ने तो मेरे हुकम के मुताबित काम किया है।
राजा इंद्रद्युम ने राजा विश्ववसु को पानी में तैरते लकड़ी को हाथ लगाने की बिनती की। जिससे लकड़ी के रूप में रहे भगवान की नाराजगी दूर हो जाए। मगर राजा विश्ववसु तो अपने अकेले हाथो से लकड़ा उठाकर ले आये। तब राजा इंद्रद्युम ने भील के राजा विश्ववसु को निल माधव मूर्ति (नीलमणि) को मंदिर में स्थापित करने के लिए देने की बिनति की। ताकि संसार दर्शन करके अपने दुःख दूर कर सके।
मूर्तियों का निर्माण

राजा विश्ववसु ने ख़ुशी से परवानगी दी। जब लकड़े याने काष्ट से मूर्ति बनाने के लिए सुथार आये। मगर कोई भी सुथार उसमे एक छेद तक नहीं कर पाए। तब विश्वकर्मा खुद बुढ्ढे सुथार बनकर आये और कहा मै २१ दिन के अंदर मूर्ति बनाके दूंगा। मेरी शर्त है की २१ दिन तक मेरे कमरे में किसी को आना नहीं है। जब तक मै मूर्ति तैयार करू, मेरे हथियार की आवाज़ बहार न जाए। कमरे के बाहर ढोल, शहनाई बजते रहनी चाहिए। अगर दरवाजा खोला तो मै काम छोड़ दूंगा।
इस प्रकार मूर्ति का काम चालू हुआ। रानी हमेशा आकर कमरे की आवाज़ सुनती थी और चली जाती थी। अचानक थोड़े दिन बाद आवाज़ आनी बंध हो गयी। रानी को लगा इतने दिन काम करने की वजह से और बुढ़ापे की वजह से शायद बीमार हो गए होंगे। इसलिए राजा ने अंदर की परिस्थिति जानने के लिए दरवाजा खोल दिया। शर्त के अनुसार, दरवाजा २१ दिन के बाद ही खोलना था। इसलिए दरवाजा खोलते ही विश्वकर्मा के रूप आये हुए सुथार चले गए। जब की मुर्तिया अभी अधूरी थी। बलरामजी , सुभद्राजी और जगन्नाथजी के हाथ और पैर नहीं बने थे। इसलिए राजा दुखी हो गए।
मूर्तियों का स्थापन

राजा इंद्रद्युम को उस रात स्वप्न आया की राजा आप दुखी न हो। हमें इसी स्वरुप में बिराजमान होना था। आप अब मूर्ति का स्थापन कर दो। इस प्रकार नारदजी ने जिस स्वरुप में तीनो भाई बहन बलरामजी, सुभद्राजी और भगवान कृष्ण याने जगन्नाथजी को कृष्णलीला सुनते वक़्त देखा था। उसी बाल सहज भाव में और उसी रूप में स्थापित हुए। इस प्रकार नारदजी को दिया हुआ वचन भगवान् कृष्ण ने पूरा किया। भगवान् कृष्ण इस मंदिर में जगन्नाथजी नाम से बिराजमान है। भगवान् कृष्ण काष्ट याने लकड़ा (दारुल) की मूर्ति में निल माधव (नीलमणि) को स्थापित किया गया है। जो भगवान का दिल है जो आज भी ज़िंदा है।
नयी मूर्ति में निलमणि या ब्रह्म पदार्थ का स्थापन

जब आषाढ़ महीने में दो बार पूर्णिमा आती हो और साथ में अधिक मास भी हो। जो करीब हर १२ साल या १९ साल में आती है। तब तीनो मूर्ति के कलेवर को बदला जाता है। याने नयी मुर्तिया निम के पेड़ की लकड़ी से बनाई जाती है। इस लकड़ी को स्थानिक भाषा में दारू कहते है। पुराणी मूर्ति की जगह नयी मूर्ति राखी जाती है।अब जगन्नाथजी की मूर्ति में जो नीलमणि या नीलमाधव या ब्रह्म पदार्थ या भगवान का दिल जो भी अलग अलग नाम से पुकारा जाता है। उसे भी नयी मूर्ति में स्थापित किया जाता है। उसे नयी मूर्ति में स्थापित करने कहा हक़ आज भी भील के राजा विश्ववसु के वंशज को है।
जब भी नीलमणि को नयी मूर्ति में स्थापित किया जाता है। तब पुरे पूरी शहर की बिजली बंध की जाती है। मंदिर को SRP की सुरक्षा में लिया जाता है। किसी को भी मंदिर के अंदर दाखिल नहीं होने दिया जाता है। जो नीलमणिको नयी मूर्ति मे स्थापित करता है उसके आँखों में भी पट्टी बाँध दी जाती है। कोई भी पूरी शहर में उस समय घर से बाहर नहीं आता है। पूरा शहर अँधेरे में विलीन हो जाता है।
आज भी नए कलेवर के प्रसंग पर नीलमणि विश्ववसु के वंशज ही बदलते है। सिर्फ उनके वंशज ही इस नीलमणि को छु सकते है और नीलमणि को नयी मूर्ति में स्थापित कर सकते है। उसे स्थानिक भाषा में दैत्यापति कहते है। जब की विद्यापति और राजा की पुत्री ललिता के वंशज रसोई का काम सम्हालते है। जिसे स्थानिक भाषा में सौरस कहा जाता है। मंदिर की पूजा और विधि विधान का काम विद्यापति की ब्राहिं पत्नी के वंशज की देखरेख में होता है। जिसे स्थानिक भाषा में पांडा कहते है। इस प्रकार आज भी मंदिर और मूर्ति की देखभाल भील के राजा विश्ववसु के वंशज ही करते है। जहा भगवान कृष्ण का दिल आज भी धड़कता हो वह वैकुण्ठ ही हो सकता है।
जय जगन्नाथ
आगे का पढ़े : १ अंगारकी चतुर्थी २०२१ २. रथ यात्रा भाग - २ २०२४
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