कुंभ मेला - भाग २

                                                                       कुंभ मेला - भाग २  

                                                                                                                                                      Ganges Flowing at Har-Ki-Pauri, By Tarun802, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY-SA 4.0 

कुंभ मेला जैसा, इस दूनिया के किसी भी देश में, कोई भी त्यौहार इतनी आयोजन पूर्वक नहीं मनाया जाता है। इस दुनिया में कोई भी त्यौहार में इतना जनसमूह एक जगह पर बिना कोई आमंत्रण के जमा नहीं होता है। इतने अलग अलग सम्प्रदाय के बावजूद इतनी शांति और श्रद्धा पूर्वक करोड़ो भक्तो एकसाथ त्यौहार मनाते है। ऐसा सिर्फ भारत की धरती पर ही शक्य है। कुंभ मेले में देश के कोने कोने से भक्तगण आते है। 

अगर आप अपनी आँखों से न देखो तो आप मान ही सकते की इतने सारा जनसमूह के साथ इतनी शांति से इतना बड़ा आयोजन पूरा हो सकता है। इस मेले में विभिन्न भाषा, विभिन्न वेशभूषा, विभिन्न संस्कृति, विभिन्न संप्रदाय, विभिन्न प्रांत, विभिन्न आचरण और विभिन्न जीवन शैली के करोडो भक्तो आते है। फिर भी कोई दंगा फसाद, लड़ाई या किसी भी प्रकार का कोई तनाव नहीं देखने को मिलता है। ये सब भारतीय संस्कृति और संस्कार से ही संभव है। बाकि दुनिया के कोईq भी कोने में यह शक्य नहीं है। 

इस कुंभ मेले में एक उलटी गंगा भी बहती है। जिस महात्मा और तपस्वी को दर्शन के लिए, लोग गुफा, कंदराओं, जंगल और पर्वतो में ढूंढने जाते है|  फिर भी बड़ी मुश्किल से मिलते है वह सभी महात्मा अपने अखाड़ों के साथ मेले में आते है। ऐसी कई दिव्य आत्मा याने साधू महात्मा का दर्शन बिना कष्ट के कर सकते है। इसे आप साधु संतो का मेला भी कह सकते है। देश भर में से सभी साधू महात्मा अपने संप्रदाय और अखाड़ों के ध्वज के साथ आते है। कहते है की हाल में १३ अखाड़े अस्तित्व में है। इसमें से अधिकांश आदि शंकराचार्य से संबधीत मानते है।  विभिन्न साधु और महात्मा को मिलन का यह उत्तम स्थान है।कहा जाता है की कुंभ मेला अंतरिक्ष में से भी दिखाई देता है।  

                                                   कुंभ मेला के कितने प्रकार के होते है?

कुंभ मेले के ३ प्रकार होते है। पहला महा कुंभ मेला, जो की हर १४४ साल या १२ पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है। जो सिर्फ प्रयाग राज में ही मनाया जाता है। दूसरा पूर्ण कुंभ जो की, हर १२ साल के बाद आता है। तीसरा अर्ध कुंभ मेला जो की, हर ६ साल के बाद मनाया जाता है। वह सिर्फ हरिद्वार और प्रयाग राज में ही मनाया जाता है। 

                                                  कुंभ मेला कब और कहा मनाया जाता है ?

 हिन्दू पुराण के अनुसार, कुंभ मेला एक संस्कृत शब्द है।कुंभ याने कलश, जो अमृत भरा कलश को दर्शाता है। जो के अमृत मंथन से धनवंतरि देव के हाथ में था। मेला याने लोक समूह का मिलना। इस प्रकार कुंभ मेला अमृत मंथन के प्रसंग को दर्शाता है। भारत में ४ हिन्दू तीर्थ पर कुंभ मेला मनाया जाता है। उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार में, मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी पर उज्जैन में, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक में और उत्तर प्रदेश में गंगा, जमना और सरस्वती नदी के संगम पर प्रयागराज में हर ३ साल के बाद मनाया जाता है। 

पुराणों के अनुसार, कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई उसका प्रमाण नहीं है। इतिहास के अनुसार चीन के यात्री वेद शांग ने अपने पुस्तक में किया था। उसमे राजा हर्षवर्धन का जिक्र था। यह राजा कुंभ मेले में जाकर अपना सारा गहनो का दान कर देते थे सिर्फ पहने हुए कपडे के साथ ही अपने महल में जाते थे। पुराणों के अनुसार इसकी शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गयी थी। कही ग्रन्थ के अनुसार, इसकी शुरुआत शंकराचार्य ने की थी। इस प्रकार कुंभ मेले की शुरुआत कब हुयी और किसने की, का कोई प्रमाण नहीं है। मगर यह तय है के कुंभ मेला हज़ारो सालो से मनाया जाता है।  

                              कुंभ मेले का अनोखा आकर्षण रहस्यमयी नागा साधू 

                                                                                        
                       Indian Kumbh Festival, By Vitthal Jondhale, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY-SA 4.0                                Kumbh mela,india| Allahabad, Prayagraj, Naga Sadhu, By NInara, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY 2.0

कुंभ मेले का कोई भी अधिक चर्चित और कुतूहल प्रेरक इंसान है तो वह नागा साधू है। यह लोग कहा से आते है और मेला ख़त्म होने के बाद कहा चले जाते है वह कोई नहीं जानता। नागा साधु के शरीर पर वस्त्र के बजाय सिर्फ राख मली होती है और बदन पे रुद्राक्ष पहने होते है। कहते है की एकबार दीक्षा लेने के बाद वह २४ घंटे में एक ही बार खाना खाते है। दीक्षार्थी सिर्फ ७ घरो से भिक्षा मांगकर ही खा सकते है। अगर ७ घर में से दिसखा न मिले तो उन्हें भूखा रहना पड़ता है। 

ज्यादातर नागा सन्यासी दीक्षा के बाद साधना और तप करने पर्वत की गुफा और कंदरो में चले जाते है। कोई पर्वत और जंगल में रहते है। नागा साधू जंगल में फूल, पत्ते और जड़ीबूटी खाकर ही ज़िंदा रहते है। वह कोई पलंग पर नहीं सो सकते है उन्हें जमींन पर ही सोना पड़ता है। नागा साधू अपनी यात्रा रात्रि में जंगलो से ही करते है और दिन में आराम करते है इसलिए किसी को दिखाई नहीं देते है। 

नागा साधू अपने अखाड़े और आश्रम में ही रहते है। अखाड़े की दीक्षा के बाद जब वह तपस्या के लीये गुफा या पहाड़ो पर जाते है। तब एक कोतवाल दोनों के बीच सन्देश की आप ले करता है। उनका जीवन कठिन होता है।अखाड़े की आज्ञा के अनुसार कुंभ मेले में और दीक्षा स्थान पर रात को ही यात्रा करके पहोचते है। इसलिए उनका जीवन सबको रहस्यमय है।  

                                                       कुंभ मेला और कोविद १९   

इस साल कोविद १९ की महामारी की वजह से कुंभ मेले में स्नान के लिए अलग व्यव्श्था की गई है। इस साल कुंभ मेले में जाने से पहले सरकार द्वारा की गई व्यवस्था और निति नियम जानना अत्यंत जरुरी है। इसके लिए कुंभ  में जाने का निर्णय करने से पहले मेरा कुंभ मेला तैयारी १ जरूर पढ़े।  सरकार सुविधा के साथ साथ सख्ती से सोशियल  डिस्टेंस का भी  पालन करने वाली है।

                                                  रेलवे की श्रद्धालु के लिए नियम 

                  

                Haridwar Junction Railway Station (oct 18, 2011), By world8115, image compressed and resized, Resource is licensed under CC BY - SA 3.0                                                       Indian Railways WAP-4 Class electric locomotive, By Shan.h.Fernandes, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY_SA 3.0 

  कुंभ मेले में श्रद्धालु के आने के लिए सुविधा हो, इसलिए हरिद्वार, ऐथल, ऋषिकेश, मोतीचूर, पथरी और ज्वालापुर रेलवे स्टेशन पर फुट ओवर ब्रिज बनाये गए है। योग्य मार्गदर्शन स्टेशन पर ही मिले इसलिए इन सभी स्टेशन पर ८३ अनारक्षित, २१ आरक्षित और १६ पूछताछ काउंटर बनाए जाएंगे। १० रेल्वे स्टेशन पर यात्रिओ की सुविधा के लिए इफॉर्मेशन काउंटर और यात्रिओ की सुरक्षा के लिए करीब ३४० केमेरे भी लगाए जाएंगे।


श्रद्धालु को सफर में परेशानी न हो इसलिए नए स्टेशन बनाने की तैयारी हो गयी है। यात्रिओ को स्टेशन पर से ही रेल्वे  कर्मचारि  टिकट दे सके इसकी तैयारी भी हो चुकी है। रेल कर्मचारी को ब्लू टूथ प्रिंटर की भी सुविधा दी जायेगी। एक योग नगरी ऋषिकेश स्टेशन अलग से बनाया गया है ताकि हरिद्वार स्टेशन में यात्रिओ की भीड़ कम हो। यहा से बहोत सारी ट्रैन चलाई जायेगी। 

नयी ३५ ट्रैन चलाई जायेगी और वर्तमान में २५ ट्रैन जो चल रही है। उसे मिलके ४८ ट्रैन जायेगी। हर आधे घंटे में १ ट्रैन चलाई जायेगी मगर अभी कहा से कहा तक ये ट्रैन चलेगी उसका समय पत्रक नहीं आया है। 

                                     कुंभ मेला के पीछे की पौराणिक कथा

कुंभ मेला का आयोजन चार स्थानों पर होता है। हरिद्वार, उज्जैन, नाशीक और प्रयाग में होता है। हर जगह पर वो  ३ साल के बाद मनाया जाता है। यानी इस साल हरिद्वार में कुंभ मेला मनाने के बाद, फिर से हरिद्वार में वह १२ साल के बाद मनाया जायेगा। हर १२ साल के बाद कुंभ मेला मनाने के पीछे ज्योतिष का आधार और पौराणिक प्रसंग दोनों  कारणभूत है। 

                                            ज्योतिष की गणना के आधार पर कुंभ मेला 

Zodiac symbols painted Relief on terrace of a Gopuram at kanipakam, By Adityamadhav83, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY-SA 3.0 

ज्योतिष कि मान्यता के अनुसार, आकाश मंडल के चक्र के ३६० अंश को १२ भाग में बाटकर १२ राशि बनाई गयी  है। किसी भी मुहूर्त तय करने के लिये गुरु और सूर्य प्रमुख ग्रह माने जाते है। ४ तीर्थ मे से किस तीर्थ में कुंभ मेला का आयोजन होगा वह राशि पर आधारित होता है। जब सूर्य और गुरु का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश होता है तब कुंभ मेला कहा और किस दिन मनाया जाएगा वह निर्धरित होता है। 

जब गुरु ऋषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते है तब कुंभ मेला प्रयाग में मनाया जाताहै। जब गुरु मेष  राशि में और सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ मेला हरिद्वार में मनाया जाता  है। गुरु और सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करते है तब कुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है। गुरु सिंह राशी में और सूर्य मेष राशि प्रवेश करते है तब कुंभ मेला उज्जैन में मनाया जाता है। जब सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करते है तब उज्जैन मध्यप्रदेश में कुंभ मेला मनाया जाता है और उसे सिंहस्थ भी कहते है।  गुरु एक राशि में १३ महीने रहता है। इसलिए वही राशि में फिर से आने के लिए उसे १२ साल लगता है। इसीलिए कुंभ मेला हर १२ साल के बाद ही आता है। उज्जैन में कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है क्योकि उस वक़्त गुरु सिंह राशि में होता है।  

                                                      पौराणिक कथा के आधार पर कुंभ मेला                                                                                                               

                                      Samudra Manthan -The -churning -of- the- ocean - of -milk, By unknown author, image compressed and resized, source, is licensed under CC BY-SA 4.0               Dhanwantari Bhawan, By Dhanwantari4u, image compressed and resized, Source is licensed CC BY-SA 4.0

एक बार अचानक ही इंद्र देवता की मुलाकात महर्षि दुर्वासा के साथ हो गई। इंद्र ने महर्षि दुर्वासा को प्रणाम किये। महर्षि दुर्वासा ने भी प्रस्सन हो के अपनी एक माला इंद्र को तोहफे के रूप में दी। इंद्र ने माला का स्वीकार करके अपने ऐरावत को पहनाई। ऐरावत ने माला को गले से निकालकर अपने पैरो तले कुचल दी। यह देखकर महर्षि दुर्वासा अत्यंत क्रोधी हो गए। महर्षि ने इंद्र को श्राप देते हुए कहा की तुम श्रीविहीन यानी सम्पति विहीन हो जाओगे।

यह सुनकर इंद्र चिंतित हो गए क्योकि पूरा ब्रह्मांड महर्षि के श्राप से अवगत थे। श्राप की असर होने लगी और इंद्र श्रीविहीन होने लगे। इसलिए इंद्र ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी उन्हें विष्णुजी के पास ले गए। उस वक़्त दानवो ज्यादा शक्तिशाली थे। इसलिए इंद्र ने कहा दानवो से समजुती कर लो और समुद्र मंथन करो उसमे से अमृत निकलेगा जो हम देवता को ही देंगे। जिसे पीकर देवता अमर हो जाएंगे। दानवो के हाथ में नहीं आने देंगे।

हिमालय के पास मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर मंथन किया गया। उसमे से ऐरावत, रंभा, शंख, गदा, धनुष, घोड़ा, पारिजात, कल्प वृक्ष, कौस्तुभ मणि, कामधेनु, चंद्र और अमृत कलश लेकर धन्वन्तरि भी  प्रगट हुए। अमृत निकलते ही उसे पाने के लिए देव और दानव के बीच युद्ध चालू हो गया। देव राज इंद्र का पुत्र जयंत, बृहस्पति, सूर्य, शनि और चन्द्रमा अमृत कलश को लेकर भाग ने लगे। दानवो उनका पीछा करते करते पृथ्वी का चक्कर काटने लगे। उस वक़्त कलश में से अमृत की बुँदे हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में गिरी । यह भागदौड़ और युद्ध १२ दिन तक चला।  

उसके बाद में देव और दानवो के बीच समझौता हो गया। तब विष्णु भगवान ने स्त्री का याने की मोहिनी का रूप धारण करके अमृत इस प्रकार बाटा की दानवो का अमृत लेने का वक़्त आया तो अमृत ख़त्म हो चुका था।देव और दानवो का युद्ध अमृत के लिए देवताओ के १२ दिन तक चला था। ऐसा कहा जाता है की, देवता का एक दिन बराबर पृथ्वीवासी का एक साल होता है। इसलिए यह युद्ध पृथ्वीवासी के हिसाब से १२ साल तक चला था। इसलिए कुंभ मेला हर १२ साल के बाद लगता है। 

जब अमृत कलश लेकर इंद्र के पुत्र जयंत, सूर्य, चंद्र, शनि और गुरु याने बृहस्पति भागे तब चंद्र ने अमृतको बह जाने से बचाया था। सूर्य ने कलश को टूटते हुए बचाया था। शनि ने इंद्र के कोप से बचाया था और गुरु ने कलश को छुपाया था। इसलिए जब इन सभी ग्रहो का योग, संयोग से एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है।

                                       संत रविदास और गंगा माँ की कथा   

                                                                                                           Ganga ma mymensign, By Dip Paul, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY-SA 4.0                                                                          Sri Guru RavidasJi, By [1], image compressed and resized, Source is licensed under CC BY 2.0

बड़ा ही महत्त्व है। दुनिया भर से लोग गंगा जी में स्नान करने आते है। साधु, संत, अघोरी, महात्मा या संसारी श्रद्धालु सभी गंगा जी में स्नान करके पवित्र और पाप मुक्त होते है। रोहिदास छोटी जाती के थे। अपना गुजारा वह चमड़े का चप्पल बनाकर करते थे। वह गंगा माँ के भक्त थे। स्वभाव से भोले और सरल थे। बड़ी पवित्रता से गंगा माँ की भक्ति करते थे। वह शूद्र जाती के थे। इसलिए उच्च जाती के साधु उनकी इर्षा करते थे। मगर उनकी निस्वार्थ भक्ति से माँ गंगा उन पर प्रस्सन थी। 

एक पूनम का पवित्र दिन में गांव के सारे उच्च जाती के शास्त्री सभी अपने दोस्तों के साथ गंगाजी में स्नान करने जाते थे।  तब रविदास ने शात्रीजी को उसका पैसा गंगाजी को देने का निवेदन किया आर ये भी कहा की, अगर गंगाजी स्वयं अपने हाथो से स्वीकार करे तो ही देना नहीं तो मत देना। ऐसी बाते सुनकर सभी ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ। सभी ने उनकी बात हसी में उड़ा दी।

गंगाजी में स्नान करने के बाद जब शास्त्री ने संत रविदास का सिक्का गंगा माँ को नहीं दिया क्योकि वह इस बात को नहीं मानते थे की गंगाजी स्वयं रविदास का सिक्का लेने आएगी। जब वह सिक्के दिए बिना ही लौटने लगे तो गंगा माँ ने स्वयं आवाज़ देकर रविदास को सिक्का देने को कहा। सभी आश्चर्य चकित जो गए। सिकका लेने के बाद गंगा जी ने अपने सोने के कंगन संत रविदास को देने को कहा।

सोने का कंगन देखकर सभी ब्राह्मण लालच में आ गए। यह सोने का कंगन लेकर सभी राजा के पास गए और कहा कि हमारी भक्ति से खुश होकर हमें गंगा माँ ने खुद दिया है। इसलिए यह भेट हम आपको देने आये है।  ताकि राजा से कंगन के बदले मे इनाम मिल सके। जब रानी ने कंगन देखा तो उसने कहा मुझे इस कंगनकी जोड़ी याने दूसरा ऐसा ही कंगन चाहिए। तब राजा ने शास्त्री से कहा कि, गंगा माँ तुम्हारी भक्ति से खुश है तो चलो मै भी तुम्हारे साथ चलता हु और गंगा माँ से प्राथना करके दूसरा कंगन भी ले आते है। 

अब शास्त्री फस गए और राजा को सही बात बता दी। अब राजा और सभी ब्राह्मण संत रविदास  के पास गए। राजा ने रविदास को कहा गंगामा का ये कंगन रानीको बहुत ही पसंद है इसलिए तुम हमारे साथ चलो और गंगामाँ से दूसरा कंगन भी दिला दो। इस के बदले में मै तुम्हे इनाम दूंगा। संत रविदास के मन में कोई लालच नहीं था। उन्हों ने कहा मुझे कुछ यही चाहिए। मगर मै गंगा माँ से दूसरा कंगन लाने का प्रयास जरूर करूंगा। 

रविदास ने राजा को कहा दूसरे कंगन के लिए गंगाजी तक जाने की जरुरत नहीं है। शास्त्री जी के कहने के मुताबित अगर ये कंगन सचमुच गंगाजी ने मुझे दिया है तो दूसरा कंगन यही पर गंगाजी देगी। रविदास ने गंगाजी को प्राथना की। राजा को कहा "मन चंगा तो कठौती में गंगा" मुझे मेरी भक्ति पर भरोसा है। इसी कठौती में गंगा माँ दूसरा कंगन जरूर दे जाएगी। 

इतने में मानो एक चमत्कार हुआ, अचानक कठौती का पानी में उछाल आया और एक महिला का हाथ उसमे से निकला और दूसरा कंगन रविदास जी को दिया। वहां खड़े राजा सभी सब नत मस्तक हो गए। उस दी जो रविदास को लोग शूद्र कहते थे उसे सब लोग संत कहने लगे।  इसलिए गंगाजी सिर्फ नदी नहीं साक्षात देवी है और अपने भक्तो के पर हमेशा अपनी कृपा बरसाती है।                 

कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आयोजन है।  जो इतना विशाल है की अंतरिक्ष से भी दीखता है। किसी के भी आमंत्रण के बिना, स्वयं नियंत्रित श्रद्धालु जो, विभिन्न राज्य,परिवेश, आदत, रहन सहन वाले और विभिन्न अखाड़ों के साधु महात्मा एक ही स्थान पर शांति से उत्सव का आयोजन करते है। यह सिर्फ भारत में ही हो सकता है।




आगे का पढ़े :  १. मकर संक्रांति २. स्वामी विवेकानंद 

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