
अनुच्छेद | शीर्षक |
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१. | "ऐके हज़ारा" नेताजी सुभाषचंद्र बोस |
२. | नेताजी का जीवन परिचय. |
३. | राजनैतिक गुरु से मिलन. |
४. | पहली जेल यात्रा और मेयर पद. |
५. | कोंग्रेस के अध्यक्ष. |
६. | गांधीजी से मनदुख और कोंग्रेस से इस्तीफा |
७. | नेताजी नजरबंद. |
८. | अंग्रज सरकार को चकमा. |
९. | नेताजी की हिटलर से मुलाकात. |
१०. | जर्मनी ने किया "नेताजी" के नाम से सन्मानित. |
११. | असाधारण व्यकतित्व का परिचय. |
१२. | इंडियन इनडिपेंडेंस लिंग से नेताजी की मुलाक़ात. |
१३. | द्वितीय विश्व युध्ध में जापान की मजत पकड़. |
१४. | आजाद हिन्द फ़ौज और भारत की पहली अस्थायी सरकार. |
१५. | जापान पर अणुबम का हमला |
१६. | नेताजी का अकस्मात और निधन. |
१७. | अयोध्या के "गुमनामी बाबा" या नेताजी सुभाषचंद्र बोस. |

१९१९ में कलकत्ता विश्व विद्यालय से नेताजी ने अपनी ग्रेजुएशन पूर्ण की। १९२० नेताजी "इंडियन सिविल सर्विस" की परीक्षा उस वक़्त ब्रिटेन में होती थी। नेताजी आई.सी.एस. की परीक्षा देने ब्रिटेन के लंदन गए। इस परीक्षा में नेताजी को योग्यताक्रम में चौथा नंबर मिला। इस प्रकार नेताजी ने २३ साल की आयु में उस वक़्त की सबसे कठिन परीक्षा चौथी रैंक में पास की। जो उनकी प्रतिभा को दर्शाता है। इतनी बड़ी और इतनी कठिन परीक्षा पास करके नेताजी बड़ी आराम की ज़िंदगी पसार कर सकते थे मगर उन्हों ने त्यागपत्र देकर स्वदेश लौट आये।
राजनैतिक गुरु से मिलन
स्वदेश लौटने बाद, नेताजी की मुलाकात स्वराज पार्टी के प्रमुख चितरंजन दास से हुई जो उस वक़्त के काफी प्रभावी नेता थे। जो बाद में, नेताजी के राजनैतिक गुरु भी बने। नेताजी खुद इतना बड़ा कारनामा करके स्वदेश लौटे थे इसलिए उनकी काफी चर्चा थी। नेताजी ने इतनी कठिन परीक्षा चौथे क्रमांक में पास करके मिली पदवी को ठुकराकर, स्वदेश आज़ादी की लड़ाई लड़ने आये थे। इसलिए चितरंजनदास और गांधीजी जैसे प्रभावी नेता ने नेताजी को कांग्रेस में शामिल होनेको कहा। इस तरह वह कांग्रेस में शामिल हो गए।
पहली जेल यात्रा और मेयर पद

नेताजी को पहली बार देश की आज़ादी के लिए दिसंबर १९२१ में जेल की सजा हुए। उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ २४ साल थी। अपने जीवन के नेताजी कुल ११ बार जेल गए थे। ६ महीने की सजा काटकर वह कलकत्ता आये। जहा नेताजी को चितरंजनदास का पूरा सहयोग मिला। १९२३ में वह कलकत्ता के मेयर चुने गए। इस तरह नेताजी सक्रीय राजकरण में आये। मेयर होने के नाते उन्हों ने कलकत्ता की प्रजा की समस्या को जाना।
नेताजी की इतनी तेज प्रगति देखकर अंग्रेज बौखला गए थे। अंग्रेज हमेशा नेताजी पर नज़र रखते थे। उनकी गलती ढूंढकर जेल भेजना चाहते थे। ओक्टोबर १९२४ में किसी कारण वश फिरसे गिरफ्तार करके मांडले जेल बर्मा भेजा गया। वहासे नेताजी १९२७ में रिहा हुए। इस बीच १९२५ में नेताजी के राजनैतिक गुरु चितरंजन दासजी की मृत्यु हो चुकी थी। १९२७ में ही नेताजी ने नेहरू जी के सहयोग से इंडियन लिंग नामक अपना नया संगठन बनाया। करीब १९३८ तक उन्हों ने देश की समस्या और अंग्रेजो की रणनीति को समजा। नेताजी ने इस देश को कैसे आज़ादी मिले उसका अध्यनन किया और राजकीय अनुभव भी लिया।
कांग्रेस के अध्यक्ष

१९३८ तक नेताजी ने कांग्रेस और देश के लिए बहोत काम किया। कांग्रेस में तो उनका बोलबाला हो चूका था। कांग्रेस और देश को ऐसा लगाने लगा था की, नेताजी में आज़ादी दिलानेकी काफी क्षमता है और भविष्य में इस काम में उनका मुख्य रोल हो सकता है। इसलिए १९३८ में हरिपुरा में कांग्रेस ने नेताजी को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। नेताजी ने अपनी अध्यक्षता में कांग्रेस को सुसंगठित किया और आज़ादी के मार्ग पर चलकर अंग्रेजो से कैसे भिड़ना है वह सब नेताजी ने तय कर लिया था। नेताजी खुद तो अनुशासित थे ही कांग्रेस को भी संगठित और अनुशासित कर दिया। इसलिए कांग्रेस में उनका दबदबा बहोत ही बढ़ गया।
गांधीजी से मनदुख और कांग्रेस से इस्तीफा

१९३९ में कांग्रेस का अधिवेशन त्रिपुरी में आयोजित हुआ। उसमे फिरसे अध्यक्षता के लिए चुनाव होनेवाले थे। उस वक़्त नेताजी का स्वास्थय ठीक नहीं था लेकिन कांग्रेस में उनके सहयोगी ने उनका नाम शामिल कर दिया। नेताजी का प्रभाव ऐसा था की फिरसे अध्यक्ष बनाना तय था। मगर उस वक़्त गांधीजी ने उनका साथ छोड़ दिया। गांधीजी ने अपना उमेदवार के तौर पर पट्टावी सीतारमैया को खड़ा किया। लेकिन नेताजी का प्रभाव के आगे गांधीजी का उमेदवार पट्टावी सीता रमैया चुनाव हार गए।
गांधीजी के उमेदवार की हार से गांधीजी के करीबी नेता बौखला गए। इन सब नेता ने नेताजी सुभाषचंद्र पर इस्तीफे के लिए दबाव बनाने लगे। कांग्रेसी नेताओ का यह तरिका नेताजी सुभाषचंद्र को अयोग्य लगा। नेताजी तो चुनाव लोक तांत्रिक तरीके से जीते थे। इसलिए नेताजी ने इस्तीफा देकर अपना नया संगठन "फॉरवर्ड ब्लॉक" के नाम से बनाया। इस तरह नेताजी ने हमेशा के लिए कांग्रेस से दूरी बना ली।
नेताजी नज़रबंद
१०४० में अंग्रेजो ने आज़ादी के लिए लड़ने वाले नेताओ को पकड़ने के लिए "भारत सुरक्षा कानून" लाये। इस कानून का पहला शिकार अंग्रेजो ने नेताजी को बनाया। उस वक्त नेताजी अकेले पड गए थे। उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए कोंग्रेसी भी उनसे ग़ुस्से मे थे। अंग्रेजो को लगा की कांग्रेस का कोई भी नेता इनके पक्ष नहीं है। यह नेताजी की गिरफतारी के लिए सही वक़्त है। फिर भी नेताजी का प्रभाव ऐसा था की अंग्रेजो ने कायदे से गिरफ्तार न करके उनके घर में ही दिसंबर १९४० में नज़रबंद कर दिया। उन पर कड़ी नज़र रखी गयी। इस तरह नेताजी बुरी तरह अंग्रेजो के सिकंजे में फस गए।
आगे की पोस्ट जरुर पढ़े : शहीद भगतसिंह
अंग्रेज सरकार को चकमा

नेताजी तो हिंदी कहावत के अनुसार "ऐके हज़ारा" थे। नेताजी अकेल ही सेना के बराबर थे। नेताजी तो बहुत ही चालाक और बुद्धिमान थे। नेताजी के पास उस वक़्त न कोई सहयोगी था न तो कोई हथियार था और घर के बाहर ही पहरेदार था। तब नेताजी ने एक योजना के अनुसार,अपने मित्र जियाउद्दीन पठान को घर पे बुलाया और उस जियाउद्दीन पठान का पहनावा पहनकर अपने घर से निकल गए। इस तरह अंग्रेज सरकार को एक महीने के अंदर ही चकमा देकर १८ जनवरी १९४१ में घर से निकलकर, ट्रैन पकड़ कर पेशावर चले गए।
पेशावर से काबुल अपने मित्र भगतराम तलवार को मिले। जिसने योजना के अनुसार, एक इटालियन व्यक्ति, ऑरलेंडो मायजेंटा के नाम से एक नक़ली पास पोर्ट बनवाकर तैयार रखा गया था। जिसे लेकर नेताजी काबुल से निकलकर रशिया की राजधानी मॉस्को पहुंच जाते है। मॉस्को से निकल कर जर्मन की राजधानी बर्लिन पहुंच गए। वहा नेताजी हिटलर के सहयोगी रिपेन्ट्रोप से मिले।
नेताजी की हिटलर से मुलाकात
जर्मनी ने किया "नेताजी" के नाम से सन्मानित
असाधारण व्यक्तित्व का परिचय
यह घटना दिसंबर १९४१ की है। यहाँ हमें नेताजी का आयोजन, निडरता और क्षमता का पता चलता है। अभी दिसंबर १९४० में भारत के घर के कमरे मे नेताजी को नजरबंद किया था। तब वह बिलकुल अकेले थे। बराबर एक साल के बाद, अकेले अपने दम पर अंग्रेज जैसी सरकार को चकमा देकर जर्मनी की प्रजा का लोकप्रिय नेता बनके दिखाना कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है।
इंडियन इंडिपेंडेंस लिंग से नेताजी की मुलाकात
दुतिय विश्व युद्ध में जापान की मजबूत पकड़
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जापान में रास बिहारी बोस ने २८ मार्च १९४२ में "इंडियन इंडिपेंडन्स लिंग" की मीटिंग बुलाई। इस मीटिंग में जापान के भारतीयों को आमंत्रित किया गया। इस मीटिंग में "इंडियन इंडिपेंडन्स लिंग" और "आज़ाद हिन्द फ़ौज" के विलय का प्रस्ताव रखा गया। इस कार्य को आगे बढ़ने के लिए दूसरी मीटिंग बैंकॉक में रखी गयी। इस सभा में जापान, सिंगापुर, मलाया और बर्मा के भारतीयों और वहा बसे सैनिक को निमंत्रित किया गया। यहाँ पर रास बिहारी बोस ने "आज़ाद हिन्द फ़ौज" की विधिवत स्थापना की।
नेताजी को जून १९४३ में जापान के टोक्यो में, इस दोनों संस्था के विलय के वक़्त आमंत्रित किया गया। उस वक्त जापान के वडा प्रधान तोजो ने नेताजी का दिल से स्वागत किया। इस दरम्यान जापान की सेना ने बर्मा पर हमला किया। भारतीय सेना के मेजर मोहन सिंह ने अपने ४०,००० सैनिक के साथ हार मानकर आत्मसमर्पण कर दिया। उस वक़्त जापान के सैन्य अधिकारी मेजर फुजिहारा ने एक भारतीय देश भक्त और धार्मिक व्यक्ति प्रीतम सिंह ने भारत के मेजर मोहनसिंह को समझाया की भारतीय होकर भी क्यों अंग्रेजो का साथ दे रहे हो? तुम्हे तो देश को आज़ाद करवाने के लिए अंग्रेजो के खिलाफ लड़ना चाहिए।
प्रीतमसिंह और फुजिहारा के समजाने के बाद, कप्तान मोहनसिंघ ने अपने ४०,००० के सैनिक के साथ आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल हो गए। इस प्रकार इंडियन इंडिपेंडन्स लिंग, आज़ाद हिन्द फ़ौज और नेताजी की मुक्ति सेना मिल गई। इस तरह बहोत बड़ी फ़ौज तैयार हो गई। इस तीनो सेना को भारत की आज़ादी के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए जुलाई १९४३ में सिंगापूर में एक सभा का आयोजन किया। इस सभा में रास बिहारी बोस ने अपनी सेहत ठीक न रहने के कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष बना दिया।
आज़ाद हिन्द फ़ौज और भारत की पहली अस्थायी सरकार


अब नेताजी "आज़ाद हिन्द फ़ौज" के सर्वे सर्वा बन गए थे और पक्ष की पूरी कमान नेताजी के हाथ में आ गयी थी। सबसे पहला काम नेताजी ने सिंगापुर में एक भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी। इस सरकार को विश्व के ९ देश जैसे की जर्मनी, इटली, जापान, चीन, बर्मा, फिलीपींस, कोरिया और आयरलैंड का समर्थन भी मिला। इस ९ देशो का सहमति मिलते ही, नेताजी ने एक रणनीति बनाई। सिंगापुर से २३ ओक्टोबर १९४३ में भारत की और से मित्र देशो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अब अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध करने का निर्णय लिया। नेताजी के इस निर्णय से जापान बड़ा ही प्रभावित हुआ। जापान ने अंडमान और निकोबार द्वीप नेताजी को भेट कर दिए, जो जापान ने जीते थे।
नेताजी ने अंडमान को "शहीद द्वीप" और निकोबार को "स्वराज द्वीप" का नाम दिया। अपनी सेना को द्वीप में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने की तालीम देकर मजबूत करने में जुड़ गए। अब नेताजी ने अपनी सेना को नारा दिया की "तुम मुझे खून दो और मै तुम्हे आज़ादी दूंगा"। इसलिए नेताजी ने अंग्रेजो पर हमला करके दिल्ली फ़तेह करने का मन बनाया। अपनी योजना को सफल बनाने के लिए उन्हों ने अपनी सेना को "चलो दिल्ली" का नारा दिया। इस तरह नेताजी अंडमान और निकोबार द्वीप में भारत के खिलाफ लड़ने के लिए अपनी सेना को तैयार करने में जुट गए। अब नेताजी ने भारत में दाखिल होकर आसाम और कोहिमा में अपना झंडा लहराया। नेताजी अपनी रणनीति के मुताबित सफलता पूर्वक आगे बढ़ ही रहे थे की विश्व पटल पर एक घटना घटी।
जापान पर अणुबम का हमला
जापान उस समय दक्षिण एशिया में सबसे ताक़तवर देश बनकर उभरा था। दक्षिण एशिया का वह सबसे मजबूत और शक्तिशाली देश था। जापान ने रशिया और चीन को को भी प्रभावित कर दिया था। इस तरह जापान बड़ी तेज रफ़्तार से विश्व युद्ध में आगे बढ़ रहा था। इसी रफ़्तार में उसने अमेरिका के पर्ल हारबर पर हमला कर दिया। पररल हारबर अमेरिका का सबसे महत्त्व पूर्ण सैन्य स्थल था। इससे अमेरिका को बड़ी क्षति पहुंची। उसने भी ग़ुस्से मे अमेरिका ने ६ अगस्त १९४५ में जापान के हिरोशिमा और ९ अगस्त को नागासाकी पर परमाणु बम से हमला कर दिया। अमेरिका के इस कदम से जापान तबाह हो गया कहते है की १०० साल पीछे चला गया। इसका असर जर्मनी और इटली में भी पड़ा। इस भयानक घटना से दुतिय विश्व युद्ध का समापन हुआ।
नेताजी का अकस्मात और निधन
विश्व पटल की इस घटना का असर से अंग्रेज फिर मजबूत हो गए और नेताजी कि भारत की और रफ़्तार को बड़ा झटका लगा। नेताजी की सेना आगे बढती हुई रुक गयी। जापान में हुई घटना पर शोक व्यक्त करने नेताजी १८ अगस्त १९४५, के दिन फारमोसा द्वीप से जापान की और प्लेन में निकले पर कहते है की दुर्भाग्यवश प्लेन का अकस्मात हो गया। इस तरह नेताजी का निधन हो गया।
अयोध्या के गुमनामी बाबा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस

कहते है की १६/०९/१९८५ तक एक इंसान कभी अयोध्या, कभी लखनऊ,कभी बस्ती तो कभी सीतापुर के पास रहता था। यह इंसान हमेशा परदे में ही रहता था कभी किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाता था। जिस मालिक के घर पर किराया देकर रहता था उसे भी अपना चेहरा नहीं दिखाता था। उसे मिलने वाले भी उससे परदे से ही बाते करते थे। वह कभी अपनी पहचान नहीं देता था। हर जगह, जहा वह रहता था उसका अलग नाम होता था। कोई इसे भगवनजी तो कोई कप्तान बाबा तो कोई उसे के.डी. उपाध्याय जैसे अलग अलग नाम से बुलाते थे। वह इंसान भी उसे जो मिलने आता था उसका एक नाम रख देता था और उसे अपने दिये हुए नाम से ही बुलाता था चाहे उसका नाम कुछ भी हो। जब थोड़े दिन किसी जगह पर रहने के बाद, लोग उसके बारे मे जानना चाहते थे या स्थानिक लोग उसके बारेमे अंदाज़ दाज़ लगाने लगते थे तो अपनी जगह बदल देता था। लोगो का मानना था की यह इंसान स्वतंत्र सेनानी और आज़ाद हिन्द फ़ौज के स्थापक और महान देश भक्त हमारे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही है।
१६/०९/१९८५, में इस इंसान का निधन हो गया। वह इंसान अयोध्या में शक्ति सिंह नाम के व्यक्ति के घर में रहते थे। अपने जीवन के अंतिम २.५ साल उन्हों ने इसी घर मे गुमनामी में बिताये थे। शक्ति सिंह को उस इंसान ने नारायण नाम दिया था। शक्ति सिंह उसे भगवनजी कहते थे। वह अपने मिलने वाले के दिन तय करते थे जैसे शक्ति सिंह के मिलने का समय मंगलवार फिक्स था। शक्ति सिघ के अनुसार, साल में दो बार २३/०१, को जो की नेताजी का जन्मदिन होता था और दुर्गा पूजा के दिन कलकत्ता से ८ से १० आदमी का समूह उसे मिलने आते थे। उस दरम्यान २ से ३ दिन यहाँ भजन और भोजन का कार्यक्रम होता था। उनके निधन के बाद में उनके बक्शे से निकली तस्वीर से मालूम पड़ा की कलकत्ता से जो आते थे वह सब आज़ाद हिन्द फ़ौज के तत्कालीन गुप्तचर विभाग से थे।
उनके निधन के बाद, दो दिन तक उनके देह को रखा गया मगर जब कलकत्ता से कोई नहीं आया तब शक्ति सिंह ने ही सरयू नदी के किनारे गुप्तार घाट में अंतिम संस्कार करके समाधि बनाई। जब बात फ़ैल गयी की नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निधन हो गया है। तब यह सुनकर नेताजी के भाई सुरेश चंद्र की बेटी ललिताजी आई थी। तब उस कमरे में से हाई कोर्ट के आदेश से २४ बैग भर के करीब २७६० चीजे जैसे घडी, चश्मा, पत्र, पुस्तके निकले थे। इस सामान को देखकर ललिताजी ने भी यह सामान नेताजी का ही है वह कबुल किया था। हरेक सामान कही न कही से नेताजी से जुड़ता था। हाई कोर्ट ने भी सभी सामान को एक म्यूज़ियम बनाकर वैज्ञानिक तरीके से सुरक्षित रखने का हुकम दिया है।
जहा नेताजी का अंतिम संस्कार किया गया वह जगा पर अंतिम संस्कार नहीं कर सकते या समाधि भी नहीं बना सकते। नेताजी के निधन का समाचार आग की तरह फ़ैल गए थे। उनके निधन के बाद पत्रकारों ने गुमनामी बाबा के नाम से प्रचलित किया। यह बात शासन, प्रशासन, जिलाधिकारी, पुलिस कमिश्नर, डी.आई.जी. सब जानते थे फिर भी किसी ने कोई विरोध नहीं किया क्योकि सब इन्हे नेताजी ही जानते थे। शक्तिसिंह के अनुसार, ये बात चौधरी चरण सिंह, मोरारजीभाई देसाई जैसे नेता जानते थे। शक्तिसिंह के मुताबित भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तो खुद यहाँ मिलने आये थे। इस विवाद को ख़त्म करने लिए शक्ति सिंह राष्ट्रपति मुखर्जी को पत्र भी लिखा की आप जिसे मिलने आये थे वह कौन है? मगर इसका आज तक जवाब नहीं मिला।
अगर भारत के राष्ट्रपति किसी की मुलाक़ात करते है। उसकी भतीजी अपने चाचा के सामान को पहचान लेती है। हाई कोर्ट किसी के निधन के बाद मिले सामान के महत्त्व को जानकार उसे म्यूज़ियम बनाकर हिफाजत से रखने को कहती है। एक अग्निसंस्कार और समाधी के लिए प्रतिबंधित जगह पर अंतिम क्रिया या समाधि करने पर शासन और प्रशासन और पुलिस कमिश्नर भी सवाल नहीं उठाता है तो कोई भी समज सकता है के वह कोई सामान्य हस्ती नहीं इस देश की आदरणीय व्यक्ति थी।
इसलिए इस गुमनामी बाबा कहलाने वाले व्यक्ति को लोग नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही मानती है। इस साल नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्मदिवस सरकार द्वारा "पराक्रम दिन" के नाम से मनाया जाएगा .

आगे का पढ़े : १. कुंभ मेला-३ २.बसंत पंचमी.
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