अक्षय तृतीया २०२५
Idol 0f Adinath Bhagvan, By Ssdhing, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY- SA 3.0
अनुच्छेद/पेरेग्राफ | शीर्षक |
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१ | प्रथम तीर्थंकर |
२ | जैन और हिंदू का सबसे पवित्र दिन |
३ | अक्षय तृतीया का दिन, मुहूर्त और सोने खरीदी का मुहूर्त |
४ | वैशाख माह की तृतीया को अक्षय क्यों कहते है? |
५ | जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर की कथा |
अक्षय तृतीया, वैशाख सूद तीज के दिन आती है। जैन धर्म के अनुसार, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिश्वर की १३ महीने और १० दिन की तपस्या के पारणा का दिन है। तीर्थंकर आदिनाथ जैन धर्म के २४ तीर्थंकर में सबसे पहले तीर्थंकर थे। वह एक राजा थे। उन्हों ने दुनिया को खेती करना, पशु पालन, व्यापार आदि सिखलाया। जैन धर्म की परंपरा और निति नियम आदि बनाये। जैन धर्म की शुरुआत की। राजा के ऐशो आराम भोगने के बावजूद, साधू जीवन में १३ महीने और १० दिन तक, आहार और पानी के बिना उपवास किये। इतने ही वक़्त तक मौन व्रत भी धारण किया। इस दिन तीर्थंकर आदिनाथ का उपवास के पारणे (उपवास खोलने का दिन) का दिन है। इसलिए जैनो में अक्षय तृतीया एक अति महत्त्व का पर्व है। अक्षय तृतीया को गुजराती में अखात्रिज कहते है।

अक्षय तृतीया का दिन, मुहूर्त और सोने खरीदी का मुहूर्त
वैशाख माह के शुकल पक्ष की तृतीया याने अक्षय तृतीया इस साल 30 अप्रैल २०२५ , बुधवार को आती है।
अक्षयतृतीया की शुरुआत २९अप्रैल २०२५, मंगलवार शाम ०५:३१ और समाप्ति ३० अप्रैल २०२५, बुधवार दोपहर ०२:१२ को होती है।
अक्षय तृतीया के दिन का पूजा का शुभ मुहूर्त सुबह ०५:४१ से दोपहर १२:१८ तक रहेगा। कुल अवधि ६ घंटा और ३७ मिनट्स है।
अक्षय तृतीया को सोने खरीदने का मुहूर्त ३० अप्रैल २०२५ बुधवार सुबह ०५:४१ से दोपहर ०२:१२ मिनट तक रहेगा। कुल अवधि ०८ घंटा और ३१ मिनट्स है
वैशाख माह की तृतीया को अक्षय क्यों कहते है?

अक्षय तृतीया तिथि का कभी क्षय नहीं हुआ है इसलिए इस दिन को पवित्र माना जाता है। इसे अब्यूज मुहूर्त का दिन कहते है। इस दिन को कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत की जाती है। कोई भी मुहूर्त देखने की जरुरत नहीं है। इस दिन नए घर मे गृहप्रवेश करना हो, बिज़नेस की शुरुआत करनी हो, नयी दुकान खोलनी हो और शुभ प्रसंग जैसे सगाई या विवाह करना हो इन सब के लिए इस से अच्छा कोई मुहूर्त नहीं हो सकता है।
श्री कृष्ण के कहने अनुसार, इस दिन किया गया तप दान अनेक गुना फल देता है। कभी उसका क्षय नहीं होता है। इसलिए इस दिन हो सके उतना जप, तप और दान करे। ज्यादातर हिन्दू त्यौहार में हसी ख़ुशी का माहौल होता है। घरमे अच्छे पकवान बनाये जाते है। नविन वस्त्र पहने जाते है। मगर इस हिन्दू त्योहार मे, पकवान, नए वस्त्र की बजाय जप, तप और दान का महत्त्व है।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर की कथा Lord Rishabh deva and king Shreyans, By Helenhgj, image compressed and resized, Source is licensed under CC BY-SA 4.0 जैन धर्म में २४ तीर्थंकर हुए है। वर्तमान अवसरपर्णी के २४ वे तीर्थंकर महावीर स्वामी है। जैन धर्म के सबसे पहले तीर्थंकर श्री ऋषभ स्वामी थे। उन्हें जैन श्रावक आदेश्वर या आदिनाथ भी कहते है। वह अयोध्या के राजा नाभि कुमार और मरुदेवी के पुत्र थे। उनका जन्म चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन हुआ था। उनका विवाह नंदा और सुनंदा नामकी दो राजकुमारी से हुआ था। उनके १०० पुत्र और दो पुत्री थी। एक दिन राज सभा में मशहूर नृत्यांगना नीलांजना नृत्य देखते थे।अचानक ही नृत्यांगना का निधन हो गया। इस प्रसंग से राजा को जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञान हुआ।
नृत्यांगना नीलांजना की मृत्यु ने राजा ऋषभजी में वैराग्य भाव उत्पन हुआ। इसलिए राजा ऋषभजी ने संसार त्याग कर दिया। राजा ऋषभ देव ने चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की ६ को दीक्षा ग्रहण की थी। यह दीक्षा सिद्धार्थ वन के ६००० धनुष की उचाई वाले वटवृक्ष के नीचे दूसरे ४००० राजा के साथ ली थी। दीक्षा ग्रहण के साथ में उन्हों ने ६ माह के उपवास का संकल्प किया। इस तरह वह राजा ऋषभ से मुनि ऋषभजी हो गए।
मुनि ऋषभजी का जब ६ माह का उपवास का संकल्प पूर्ण हुआ और जब वह उपवास का पारणा (उपवास खोलने का दिन) करने के लिए गोचरी (भिक्षा) ले ने नगर में गए। तब किसी को भी गोचरी ((जैन मुनि की भिक्षा) कैसे वोहरानी (जैन मुनि को भिक्षा देने की पद्धति) होती है वह ज्ञान नहीं था। जब मुनि ऋषभ जी नगर में भिक्षा लेने गए तब सभी प्रजा ने अपने राजा को जैसे भेट देते है वैसे ही बहुत सारी कीमती चीज़, सोने के गहने, महंगे वस्त्र आदि भेट करने की कोशिश की। मगर किसी ने अन्न नहीं दिया क्योकि प्रजा के लिए वह अब भी राजा ही थे।
इतनी सारी भेट और सौगात देखकर वह ग्रहण किये बिना समता भाव से निकल जाते थे। इस तरह ६ महीने के उपवास का संकल्प के ऊपर दूसरे ७ महीने बित गए। याने १३ माह के उपवास हो गए। अब वह विहार करते करते हस्तिनापुर आ गए। इस तरह वैशाख माह की तृतीया का दिन आया। उस वक़्त हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांश राजकुमार थे। कहते है की उस वक्त राज्य में तीन व्यक्ति को स्वपन आये। वह तीनो शुभ स्वपन का ताल्लुक राजकुमार श्रेयशनाथजी से था।
युवराज श्रेयांश नाथजी ने स्वपन में सोने के समान चमकता सुमेरु पर्वत काला पड़ने लगा। तब श्रेयांशनाथजी सुमेरु पर्वत पर अमृत कलश से सींचा और उसे फिर से सोने के समान चमकता कर दिया। उनके पिताजी राजा समप्रभ को एक लड़ाई का द्रश्य दिखाई दिया। जिसमे राजा अपने शत्रु से लड़ रहे थे मगर शत्रु ज्यादा शक्तिमान था। उस वक़्त युवराज श्रेयांशनाथ आकर राजा की मदद करते है। राजा की विजय होती है। उसी रात नगर की श्रेष्ठि को स्वपन में देखा की सूर्य की किरणे अपने स्थान से बिखर रही है मगर युवराज अपने बल से उसे फिर से उनके स्थान पर स्थापित करते है। इन तीनो स्वपन में युवराज श्रेयांशनाथ के हाथो शुभ कार्य ही होते है।
सुबह में हस्तिनापुर में मुनि ऋषभजी का आगमन होता है। मुनि ऋषभजी को भेट और सौगात करने सारे नगरवासी खड़े है। मगर मुनि ऋषभजी को अब इसका कोई मोह नहीं है ,इसलिए वहा से आगे बढ़ते हुए महल की तरफ जाते है। तब युवराज श्रेयांसनाथ मुनि ऋषभ जी को वंदन करके महल में लाते है। तब युवराज को मति ज्ञान होता है। अपने अगले जन्मो का जाती स्मरण होता है। उन्हें पता चलता है की मुनि रीषभ उनके पूर्वज ही है। और तपस्या का पारणा करने आये है। एक साल की तपस्या से उनका वर्ण श्याम हो गया था।
तभी महल मे ताज़े इक्षुरस (गन्ने का रास ) से भरे घड़े आये थे। उस घड़े में से युवराज श्रेयांसनाथ मुनि ऋषभजी को पारणा कराते है। इस प्रकार वैशाख माह के शुकल पक्ष की तृतीया को मुनि ऋषभजी के ६ माह के उपवास का संकल्प का पारणा १३ माह और १० दिन के बाद पूर्ण होता है। इस प्रकार ६ माह की तपस्या १ साल मे पूरी हुई। इसलिए इस तपस्या का नाम "वर्षीतप" रखा गया। इस तरह दीक्षा ग्रहण करने के ४०४ दिन बाद मुनि ऋषभ जी को अन्न ग्रहण किया। उसके बाद फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की एकम को उन्हें केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। इस तरह मुनि ऋषभजी से तीर्थंकर ऋषभस्वामी और तीर्थंकर आदिनाथ बने।
तीर्थंकर आदिनाथ के तप की इस परंपरा आज भी जैन धर्म में वर्षीतप के नाम से हयात है। हजारो जैन श्रावक प्रति वर्ष "वर्षीतप" की साधना करते है। इस तप की शुरुआत चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की ६ से होता है। इस तप में एक दिन उपवास और दूसरे दिन खाना होता है। फिर तिरसे दिन उपवास और चौथे दिन खाना होता है। इस तरह पुरे वर्ष एक दिन उपवास और एक दिन खाना होता है। इस तरह आधा साल उपवास और आधा साल खाना होता है। इस तप की समाप्ति अक्षय तृतीया को होती है। याने वैशाख माह की शुकल पक्ष की तृतीया को ख़त्म होता है। इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर के ४०४ दिन के उपवास के तप की परंपरा को जैन धर्म में जिवंत रखा गया है।
जय जिनेन्द्र
आगे का पढ़े : १ बुद्ध पूर्णिमा २.
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